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संधि ६५
सुयदेवयहि पसत्थहि पसमियदुम्मइहि ।। वंदिवि सिरेण सउवई अंगई भयवइहि ॥ध्रुवकं ॥
जो भयवंतो मुकसवासो
जंणीसासो सुरहियवासो। जेण कयं उत्तमसंणासं
जो ण समिच्छइ चउसण्णासं। जिणदिटुं पंचिंदियणासं
जं पणवंतो पावइ णा सं। भीममुहा वग्घाइणवासा
जस्स गया दूरेण सवासा । रक्खइ मुवणं जस्स खमा णं णाणं जस्साणंतखमाणं । जेणुवइ धम्मणिहाणं
समियं चित्तं भिल्लणिहाणं । जो जीवाणं जाओ ताणं
गुरुयणभत्ती जाणं ताणं । अत्ताईणं वत्थुपयाणं
जो वत्तारो सम्वपयाणं ।
सन्धि ६५ दुर्मतिको प्रशमित करनेवाली प्रशस्त भगवती श्रुतदेवताके चौदह पूर्वो सहित ग्यारह अंगोंकी में वन्दना करता हूँ।
जो ज्ञानवान् अपने गृहवाससे मुक्त हैं, जिनसे मनुष्योंको शिक्षा होती है, जो सुरभित गन्धवाले हैं, जिन्होंने उत्तम संन्यास लिया है, जो आहारनिद्रादि संज्ञाओंको नहीं चाहते, बल्कि जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट पांच इन्द्रियोंका नाश चाहते हैं। जिनको प्रणाम करनेवाला पुरुष सुख प्राप्त करता है। व्याघ्रादि चर्मको धारण करनेवाले पाशयुक्त वेताल आदि देव जिनसे दूर चले गये हैं जिनकी क्षमा विश्व और मनुष्य की रक्षा करती है, जिनका ज्ञान अनन्ताकाशके प्रमाणवाला है। जिन्होंने धर्मका उपदेश किया है और भीलके समान लोगोंके चित्तको शान्त किया है, जिन जीवोंमें गुरुजनोंके प्रति भक्ति है, वे उनके त्राता हैं। जो आप्त आदिके वस्तुप्रमाण और समस्त पदोंके
All Mss. have, at the beginning of this samdhi, the following stanza:
आजन्म (?) कवितारसैकधिषणासौभाग्यभाजो गिरा दृश्यते कवयो विलाससकलग्रन्थानुगा बोधतः । किं तु प्रौढनिरूढगूढमतिना श्रीपुष्पदन्तेन भोः
साम्यं बिभ्रति (?) नैव जातु कविता शीघ्र ततः प्राकृते ॥१॥ AP read विशाल in the second line; A reads.प्रौढनिगूढ in the third line; and AP read कविना, A reads शीघ्रं तत प्राकृतैः, P reads शीघ्रं त्वतः प्राकृतेः in the fourth
line. १. १. A सम्मियचित्तं । २. A अंताईणं; P अत्थाईणं ।
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