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-६२. १५.३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
गय सग्गहु पुणु वेयडधरि दाहिणसे ढिहि वसुमालपुरि । विज्जाहरु इंदकेउ वसइ
पिय मयणवेय तहु अस्थि सइ । सुप्पह उप्पण्णी तोहं सुय
ओहच्छइ बालमुणालभुय । एयइ पिययमु ओलग्गियउ
भत्तारभिक्ख हां मग्गियउ । णिसुणिवि भैवि संसरि विउलि । सुउ थविवि सुवण्णतिलउ सउलि । घणरह जिणकमेकमल महिउं सीहरहें मुणिचरित्तु गहिउं । पियमित्तवेयर्गणणीकहिउ
संजमु जमु अवलंबिवि सहिउ । थिय मयणवेयविरईइ किह कइमइ दुकरकहरीण जिह । दक्खालइ लोयहुं णायवहु
तहिं रज्जु करइ सो मेहरहु । घत्ता-गंदीसरि संपत्तइ जिणु झायंतु सचित्तइ ।।
दसणु णाणु समिच्छइ उववासिउ जां वच्छइ ॥१४॥
भवभावपवेवियसव्वतणु तावेक् कवोउ पराइयउ किर झ त्ति झैडप्पिवि लेइ खलु
चलमरणुत्तासिउ सरणमणु । तहु पच्छइ गिद्ध पराइयउ । णियवइरिहि लुचिवि खाइ पलु ।
स्वर्ग गयी। फिर विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीके वसुमालपुरमें इन्द्रकेतु विद्याधर निवास करता है, उसकी पत्नी मदनवेगा सती है। वह उन दोनोंको सुप्रभा कन्या उत्पन्न हुई। बालमृणालके समान बाहुवाली वह, यह स्थित है। इसने अपने पतिकी सेवा की है, और मुझसे पतिको भीख मांगी है। विपूल संसारमें परिभ्रमणको सुनकर अपने पुत्र स्वर्णतिलकको गहोपर स्थापित कर धनरथ जिनवरके चरणकमलोंको पूजा कर सिंहरथने मुनि दीक्षा स्वीकार ली। प्रियमित्रा आर्यिकाके द्वारा कहे गये संयम और यम तथा स्वहितका अवलम्बन कर विरतिसे मदनवेगा उसी प्रकार स्थित हो गयी जिस प्रकार कविको मति दुष्कर कथासे शान्त हो जाती है। वहाँ मेघरथ लोगोंको न्यायपथ दिखाता है और इस प्रकार राज्य करता है।
पत्ता-नन्दीश्वरपर्वत प्राप्त होनेपर जिनका अपने मनमें ध्यान करते हुए जबतक वह उपवास करता है और दर्शनज्ञानकी इच्छा करता है ॥१४॥
कि इतने में जिसका जन्मके भावसे सारा शरीर प्रकम्पित है, जो चंचल मरणसे पीड़ित है, और जिसका मन शरणके लिए है, ऐसा एक कबूतर वहां आया। उसके पीछे एक गीध आया।
१४. १. A वेयढ्डवरि । २. A तासु । ३. P has तं before णिसुणिवि । ४. A भव संसरियउ; P भवि
संसरियर । ५. AP कमजुयल । ६. P महियउं । ७. P गहिय। ८. A"गणिणी । ९. A सइ
त्तइ। १०. A जा अच्छह; P जामच्छइ । १५. १. AP चलु । २. AP सेणु। ३. A झडेप्पिणु ।
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