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महापुराण
[६२. २३.६
जगणाडिपलोयणणाणधर
तेत्तियवीरियविकिरियकर । ते णिप्पडियार पसण्णमइ 'कत्थइ णउ ताहं वियाररइ । रिझंति धम्मसंभासणई
कत्थई मुयंति सीहासणई। केवलि उप्पण्णइ जिणवरहं
मुवि जाइजराजम्मणहरई। सहुँ भायरेण अहमिंद सुरु जाणंतु तच्चु पर्णमंतु गुरु । घत्ता-गोत्तमेण जं अक्खिउ जं भरहेसे लक्खिउ ॥
जं सुहु सोत्तहिं माणइ पुप्फयंतु तं जाणइ ।।२३।।
१०
इय
महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसणालंकारे महामग्वमरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकब्वे मेहरहतिस्थयरगोत्तणिबंधर्ण
णाम दुसटिमो परिच्छे प्रो समत्तो ॥६२॥
चिन्तित सूक्ष्म-सूक्ष्म अणुका आहार करते। विश्वनाड़ोको देखनेवाले ज्ञानके धारक थे। उतनी ही विक्रियाऋद्धिको कर सकते थे। प्रतिकारकी भावनासे रहित और प्रसन्नमति थे। उनमें विकाररति कहीं भी नहीं थी। वे धर्मसम्भाषणोंसे प्रसन्न होते थे। जन्म, जरा और मरणका हरण करनेवाले जिनवरोंको केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर वे कभी-कभी अपना सिंहासन छोड़ते थे। वह अहमेन्द्रसुर अपने भाईके साथ तत्त्वको जानता और गुरुको प्रणाम करता।
पत्ता-गौतमने जो कुछ कहा, वह भरतेश श्रणिकने जान लिया। अपने कानोंसे जो उस सुखको मानता है, हे पुष्पदन्त वही उसे जानता है ॥२३॥
इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका मेघस्थ तीर्थकर
गोत्र निबन्धन नामका बासठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६२॥
६. AP विहाररह । ७. A कत्यइ ण मुयंलि । ८. A पणवंतगुरु ।
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