________________
४२८
५
१०
महापुराण
धत्ता - एरावइ चडिवि सुरावइ सहसा पत्तु पुरंदरु | सहुं देवहिं णाणारुवहिं अरुहु लेवि गड मंदरु ॥ ३ ॥
४
इंदचं दखयरिंद फेणिंद हिं पुज्जिउ कुंदकुंडयकणियारहिं जणसंतीयरु संति भणेपिणु आणि भवणहु अपि जणणिहि हरि घरि पाडणडु व पश्चि गड सग्गहु पणविवि सकंदगु कणवण्णु णं बालपयंगड लक्खवरिसपरमाउ मह्ामहु वीस सेणराएण रवण्णउ णा में चक्काउहु पियतणुरुहु
पंचवीसवरवरिससहासई
जे अप्पिय धरणि णरिंदें
घत्ता - ते भायर चंद दिवायरणिह परिणाविय ताएं | विकण्णउ बहुलायण्णउ जयजयपडणिणाएं ॥ ४ ॥
हाणि तहिं वंदारयवंदहिं । बल तिलय चंपय मंदारहिं ।
गुरु सुरगिरिसिहरु मुएप्पिणु । जिणवर सुरतरुसंभवधरणिहि । तेण ण को को किर रोमंचिउ । कार्ले जाउ णाहु णव जोठवणु दह दह तह दह दह धणुतुंगउ । ढरहु णाम अवरुह्सयमहु | जसवइदेविहि सो उप्पण्णहु । छणसत्तावीसंजोयणमुहु ।
Jain Education International
५
वोलीणइं कुमरत्ति पयासई । अप्पणु बद्धउ पट्टु सुरिंदें ।
[ ६३. ३ १३
घत्ता - ऐरावतपर चढ़कर देवोंका स्वामी पुरन्दर शीघ्र वहां पहुंचा तथा नानारूपोंवाले देवोंके साथ अर्हन्त देवको लेकर मन्दराचल गया ||३||
*
इन्द्र, चन्द्र, विद्याधरेन्द्र और नागेन्द्र आदि देवसमूहने वहाँ उनका अभिषेक किया तथा कुन्द, कुटज, कनेर, बकुल, तिलक, चम्पक और मन्दार पुष्पोंसे पूजा की। लोगोंको शान्ति देनेवाले होने से उन्हें शान्ति कहकर, मन्दराचल-शिखरको छोड़कर, गुरुको लाकर, जिनवररूपी कल्पवृक्षको उत्पन्न करनेकी भूमि माँको सौंपकर इन्द्र प्राकृतनटकी तरह नाचा । उससे कोन कोन नहीं रोमांचित हुआ । इन्द्र प्रणाम कर स्वर्ग चला गया । समयके साथ जिन नवयौवनको प्राप्त हुए । स्वर्णरंगके वह मानो बालसूर्यं थे । वह चालीस धमुष प्रमाण ऊँचे थे । एक लाख वर्षकी उनकी परमायु थी । दृढ़रथ नामका दूसरा अहमेन्द्र था, वह भी विश्वसेन राजाकी दूसरी पत्नी यशस्वतीसे उत्पन्न हुआ । चक्रायुध नामसे वह प्रियपुत्र था । उसका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान था । घत्ता - चन्द्रमा और दिवाकरके समान दोनों भाइयोंका पिताने नगाड़ोंकी ध्वनिके साथ अत्यन्त रूपवती राजकन्याओंसे विवाह कर दिया ||४||
कौमार्यकालमें जब उनके पचीस हजार वर्ष बीत गये तो राजाने बड़े भाईको धरती अर्पित ४. १. ६ खर्यादिसुरिदह । २. AP पायडु णडु व । ३. AP दह तह दह । ४. AP लक्खु वरिसु परमाउ । ५. A अवरु अहसयम । ६. A नृव ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org