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महापुराण
[ ६२. १२.८
पियमित्तइ णाहु पपुच्छियउ तं णिसुणिवि ओहिणाणणयणु घत्ता-धादइसंडएरावइ
रामगुत्तु नवु होतउ
कहु तणउ एहु कहिं अच्छियउ । अक्खइ गरवइ बहुल्लवयणु । तहिं संखउरि सुहावइ ।। संखिणिरमणीरत्तउ ॥१२।।
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संजियसहलणिरंतरइ
संखइरिगुहाकुहरंतरइ। मुणि सव्वगुत्तु आसंघियउ दोहिं मि संसारु विलंघियउ । जिणगुणउववास खंविवि तण
जिणचरणकमलि थि करिवि मणु । दिहिसेणहु दाणु पयच्छियउं पंचविहु वि चोजु णियच्छियउं। विरएप्पिणु परमेट्ठिहि ण्हवणु पणविवि समाहिगुत्तु समणु । संणासें मुउ बंभेदु हुउ
कालेण णवर तेत्थाउ चुउ । सीहरहु एहु खयराहिवइ
देवहुं दुजउ तिहुवणविजइ । इहु पुण्णवंतु जयलच्छिधउ मई जितउ तो किं मज्झु मउ । ___ पत्ता-अंगइं गेण्हिवि छंडिवि चिरु संसारि विहंडिवि ।।
दुल्लहभोयाकंखिणि जिणतवेण सा संखिणि ॥१३॥ नीचा करके रह गया। आकाशतल देखकर उसे बहुत दुख हुआ। प्रियमित्राने अपने स्वामीसे पूछा, “यह किसका है और कहाँ रहता है ?" यह सुनकर अवधिज्ञानरूपी आंखवाला प्रफुल्लमुख राजा कहता है।
__ घत्ता-धातकीखण्डके ऐरावत क्षेत्रमें शंखपुर नगर शोभित है। उसमें अपनी शखिनी भार्या में अनुरक्त रामगुप्त नामका राजा था ॥१२।।
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जिसमें निरन्तर सिंहोंकी गर्जना हो रही है, ऐसी शंखगिरि गुफाके भीतर मुनि सर्वगुप्त आकर ठहरे । उन दोनों ( राजा रामगुप्त और शंखिनी ) ने संसारका त्याग कर दिया। जिनगुणों पंचकल्याणकोंके अनसार) उपवाससे अपने शरीरको क्षीण कर तथा जिनवरके चरण-कमलों में अपना मन स्थिर कर धृतिसेनको आहार-दान दिया और पांच प्रकार आश्चर्यों को देखा। पांच परमेष्ठियोंका अभिषेक कर तथा समाधिगुप्त मुनिको प्रणाम कर संन्याससे मरकर ब्रह्मेन्द्र देव हुआ। समय आनेपर वहांसे च्युत होकर विद्याधरपति सिंहरथ हुआ है जो अपनी त्रिलोकविजयमें देवोंके लिए भी दुर्लभ है। यह पुण्यवान् तथा विजय लक्ष्मीका पति मेरे द्वारा जीत लिया गया है । तो भी मुझे मद क्यों है।
पत्ता-शरीर और गृहका त्याग कर चिरकाल तक संसारमें परिभ्रमण कर तथा दुर्लभ भोगोंकी आकांक्षा रखनेवाली वह शंखिनी भी जिन तपसे ।।१३।।
७. AP महिवइ । ८. A पफुल्लवयणु; P पप्फुल्लवयणु । ९. AP णिउ । १३. १. A खवियतणु । २. AP संणिहिउ मणु । ३. A गिण्हई । ४. A संसारु ।
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