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महापुराण
[६२. १७.१०
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महं केरी चायसुभोयथुइ
इहु आयउ कुछ अजायरुइ । आएं महु सीलु णिरिक्खियउ चित्तेण असेसुपरिक्खियउ । घत्ता-एउ वयणु णिसुणेपिणु पक्खें रोसु मुएप्पिणु ॥
वंदिवि जिणवरसासणु कयउं बिहिं मि संणासणु ॥१७॥
१८
बेणि वि सुरूवअइरूववर सुररमणवणंतरि जाय सुर । णरणाहु तेहिं संमाणियउ
पइं देव धम्मु जगि जाणियउ । पई रउरवि णिविडमाण धरिय अम्हइं मि कुजोणिहि णीसरिय । गय सुरवरराएं दमवरहु
कय भोजजुत्ति संजमधरहु । दुंदुहिरउ मणिकंचणव रिसु सुरजयसरु पाउसु कयह रिसु । मरु सुरहियंगु मंथर वहइ जणु जणहु दाणु विलसिउ कहइ । पुणु णंदीसरि पोसहु करिवि थिउ पडिमाजोएं जिणु सरिवि । ईसाणसुरिंदें वणियउ।
अण्णहिं देवहिं आयण्णियउं । वपिणउ कहु केरउं चरिउ पई को तुज्झु वि गरुयउ देवे सई। घत्ता-तें णियगुज्झु ण रक्खिउ सुरवरराएं अक्खिउ ॥
मई संथुउ परमेसरु सिरिमेहरहु महीसरु ।।१८।। सुनकर यह अच्छा नहीं लगनेसे क्रुद्ध होकर यहां आया है। इसने मेरे शीलका निरीक्षण किया और चित्तसे सबकी परीक्षा की।
घत्ता-यह वचन सुनकर क्रोध छोड़कर तथा जिनवर शासनको वन्दना कर दोनों (पक्षियोंने ) संन्यास ले लिया ॥१७॥
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१८
वे दोनों सुररमणवन ( देवारण्य ) के भीतर सुरूप और अतिरूप नामके देव हुए। उन्होंने राजा ( मेघरथ ) का सम्मान किया (और कहा ) हे देव, तुमने ही संसारमें धर्मको जाना है। तुमने रौरव नरकमें जाते हुए हमें पकड़ लिया और हम लोगोंको कुयोनिसे निकाल लिया। सुरवरराजके जानेपर उसने दमवर संयमधारीकी भोजनयुक्ति ( आहारदान ) की। दुन्दुभि शब्द, मणिकांचनकी वर्षा, देवोंका जयस्वर, हर्ष उत्पन्न करनेवाली वर्षा, सुरभित हवा मन्थर-मन्थर बहती है। जन जनोंसे दानका प्रभाव कहते हैं। फिर नन्दीश्वरमें प्रोषधोपवास कर जिनको स्मरण करते हुए वह प्रतिमायोगमें स्थित हो गया। ईशानीकने वर्णन किया और दूसरे देवोंने उसे सुना (और पूछा) कि तुमने स्वयं किसके चरितका वर्णन किया। हे देव, तुमसे महान् कौन है ?
'घत्ता-उस सुरेन्द्रने अपना रहस्य छिपाकर नहीं रखा। सुरवरराजने कहा-मैंने परमेश्वर श्री मेघरथ परमेश्वरको स्तुति की है ॥१८॥
६. A वाय भोय । ७. A कुद्ध व जायरुइ । ८. P णिसुणेविण । १८. १. AP धम्मु देव । २. AP देउ । ३. AP तं। .
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