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महापुराण
[ ६२.३.१
पहरेवि परुप्परु कढिणभुय बलिवद्दहु कारणि कोवजुय । णामेण पसिद्धा भद्द धणि
ते बे वि मरेप्पिणु तेत्थु धेणि । बहुपुंडरीयपंचाणणइ
कंचणसरितीरइ काणणइ। सियकण्ण तंबकेण्ण त्ति गय संजाया पुणु जुज्झेवि मुँय । कोसलणयरिहि गोउलियघरि जाया सेरिह णववयहु भरि । एप्पिणु जुज्ञप्पिणु खयहु गय तेत्थु जि पुरि कुरैर पलद्धजय । वरसेणसत्तिसेणहं णिवहं
अग्गइ जुज्झिवि उज्झियकिवहं । ए चूंलि पहूया संभरमि
भउ पेक्खालुअहं मि वज्जरमि । दीवाइदीवि खगसिहेरि वरि उत्तरसेढिहि कणयाइपुरि । खगु गरुलवेउ दिहिसेण प्रिय सुय चंदविचंद तिलय सुहिय । पत्ता-कुसुमालुद्धइंदिदिरि सिद्धकूडजिणमंदिरि ॥
जइवरु तेहिं णियच्छिउ णियजम्मतरु पुच्छिउ ॥३॥
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थिउ लंछणु धादइविडवि जहिं सुरदिसि अइरावइ तिलयपुरि जिह तिह गेहिणि कंचणतिलय
रिसि अक्खइ धादइसंडि तहिं । पइ अभयघोसु सिरि तासु उरि । णावइ रइणाहहु रइविलय।
बैलके कारण क्रोधयुक्त होकर कठोर बाहुवाले भद्र और धन्य नामसे प्रसिद्ध वे दोनों मरकर वहीं जिसमें बहुत-से व्याघ्र और सिंह हैं, ऐसे कांचननदीके तटपर वनमें श्वेतकर्ण और ताम्रकर्ण नामक गज हुए और पुनः युद्ध करके मर गये। अयोध्या नगरमें एक ग्वालाके घर नववयसे युक्त भैंसे हुए। आकर और युद्ध कर विनाशको प्राप्त हुए, फिर उसी नगरमें आधे पलमें जीतनेवाले मेढ़े हुए। दया रहित वरषेण राजाके सम्मुख वे दोनों लड़कर ये मुर्गे हुए हैं। मैं याद करता हूँ और देखनेवालोंके पूर्वभव कहता हूँ। जम्बूद्वीपके विजयाध पर्वतपर कनकपुर नामका नगर है। उसमें विद्याधर गरुड़वेग और उसकी पत्नी धृतिषणा थी। उसके दिवितिलक और चन्द्रतिलक नामके अच्छे हृदयके मित्र थे।
घत्ता-जहाँ भ्रमर फूलोंपर लुब्ध हो रहे हैं ऐसे सिद्धकूट जिनवर मन्दिरमें उन्होंने एक मुनिको देखा और उनसे अपने जन्मान्तर पूछे ।।३।।
ऋषि कहते हैं-जिसमें धातकी वृक्षका चिह्न है, ऐसे धातकीखण्ड द्वीपकी पूर्वदिशामें ऐरावत क्षेत्र है। उसमें राजा अभयघोष था। जैसे उसके हृदयमें लक्ष्मी थी, वैसे ही उसकी
३. १. AP वणि । २. A तंबकण्णंत गय। ३. A मय । ४. A उररय लद्धजय; P उरर पलद्धजय;
T कुररय मेषौ, K कुरर मेषो. पलद्धजय प्रलब्धजयौ । ५. AP चूलिय हूया । ६. AP°सिहरिसिरि । ७. AP पिय । ८. A कुसुमलुद्ध ।
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