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महापुराण
[६१.२२. १०
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लहुपणइणिमेहुणएण ताहं
उवसग्गु रइउ तीहिं मि जणाहं । तजिउ खयरिंदें असिगहेण
गउ चित्तचूलु गासिविणहेण । घत्ता-णिवसुयसउ कणयसंति णिवइ कणयमाल परिसेसिवि ॥
आहिंडइ महियलि सुद्धमणु अप्पउ तविण विहू सिवि ।।२२।।
रयणउरइ राणउ रयणसेणु ते तहु भयवंतहु दिण्णु दाणु । अण्णेके वणि अच्छंतु संतु
आढत्तु हणहुँ कम्मई खवंतु । एयहं दोहं मि मुणिवेर समाणु संजायउ केवलि तिजगभाणु । देवागमु पेक्खिवि हीणु दीणु पुणु मुणिवरकमकमलयलि लीणु । सो खलु वसंतसेणाहि सयणु पणविउ हिरिभावोणल्लवयणु । णियणत्तिउ णिएवि अणंतणाणि णिविण्णउ रइसुहि चक्कपाणि । खेमंकरतायहु पासि दिक्ख मणि धरिवि असेस वि समयसिक्ख । सिद्धइरिहि लेप्पिणु वरिसजोउ थिउ देह विसग्गे मुक्कभोउ । घत्ता-संझायइ पंचमहन्वयइं पंचहिं पंच जि भावण ॥
पंचमगइणिञ्चल णिहियमइ परिगयपंचेंदियपणउ ।।२३।। समचित्तको नहीं पहचानता ऐसे जड़ और वैरसे उद्भट छोटी पत्नी वसन्तसेनाके मामाके लड़के चित्रचूलने उन तीनोंपर उपसर्ग किया। विद्याधर राजाके द्वारा तलवारसे धमकाया गया चित्रचूल आकाशमार्गसे भाग गया।
घत्ता-नृपसुतका सुत अर्थात् कनकशान्ति कनकमालाको छोड़कर, शुद्धमन तथा स्वयंको तपसे विभूषित कर धरतीतलपर भ्रमण करते हैं ।।२२।।
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रत्नपुर में राजा रत्नसेन था, उसने ज्ञानवान् उनको आहारदान दिया। एक और दिन जब वह वनमें कर्मोंका क्षय करते हए विद्यमान थे तो उसने (चित्रचल देव ) उपसर्ग करना शुरू किया। लेकिन वह मुनिवर इन दोनों ( अर्थात् आहारदान देनेवाले राजा रत्नसेन और उपसर्ग करनेवाले चित्रचूल ) में एक समान थे। वह त्रिजगसूर्य केवलज्ञानी हो गये। देवागम देखकर वह देव दीन-हीन हो गया और मुनिवरके चरणकमलोंमें लीन हो गया। वसन्तसेनाके मातुलपुत्र दुष्ट उस चन्द्रचूलने लज्जाभावसे विनत होकर उन्हें प्रणाम किया। वज्रायुध भी अपने नातीको केवलज्ञानी देखकर रतिसुखसे विरक्त हो गया। पिता क्षेमंकरके पास दीक्षा लेकर और मनमें समस्त शास्त्र शिक्षा धारण कर सिद्ध पर्वतपर एक वर्षका योग लेकर मुक्तभोग वह कायोत्सर्गमें स्थित हो गया।
पत्ता-वह पांच महाव्रतों और उनकी भावनाओंकी भावना करता। उसकी मति मोक्षमें अचल थी और पांचों इन्द्रियोंके प्रेमसे वह उन्मुक्त था ।।२३।।
२३. १. AP मुणिवरु । २. A हरिवाहोणवल्लवयणु । ३. AP पंच वि ।
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