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-६१. २४. १० ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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चिरु हरिगीवहु सुय धम्मभट्ठ णामें रयणाउह रयणकंठ। संसारु भमेप्पिणु जाय देव पहरंति पाव तं सावलेव । आयइ रंभाइ तिलोत्तिमाइ णिब्भच्छिय वंदियजइकमाइ । अइबलु समहाबलु खणि पलाणु पाविट्ठहु कासु ण भग्गु माणु । सहसाउहेण सयबलिहि रजु ढोइवि ववसिउ परलोयकज्जु । ब्रेउ लइयउं पिहियासवहु पासि मइ रमइ ण संतहु गेहवासि । वईभारमहीहरि रिद्धिठाणि
जोयावसाणि । तउ चरिवि तहिं जि रिसिजुवलु मय उवरिमगेवजहि णवेरि गयउं । घत्ता-एकूणतीससायरसमई बेणि वि सुहं मुंजंत थिय ।।
भरहुवरिगामि हिमअहिमयर पुप्फयंतसुरणियर पिय ॥२४॥
दिद
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महामव्वमरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकन्वे वज्जाउहचक्कवष्टिवण्णणं णाम
एकसट्रिमो परिच्छेमो समत्तो ॥६॥
२४
पुराने अश्वग्रीवका धर्मभ्रष्ट पुत्र रत्नायुध और रत्नकण्ठ पुत्र संसारमें परिभ्रमण कर देव उत्पन्न हुए। पाप सहित वे दोनों उसपर प्रहार करते हैं। वहां रम्भा और तिलोत्तमा आदि देवियाँ आयीं और यतिवरके चरणोंकी वन्दना करनेवाली उन्होंने उसकी भर्त्सना की। वह अतिबल महाबलके साथ एक क्षणमें भाग गया। किस पापीका मान भंग नहीं हुआ। सहस्रायुधमें शतबलीको राज्य देकर वह परलोककाजमें लग गया। उसने पिहितास्रवके पास व्रत ग्रहण कर लिया। सन्तकी मति गृहवासमें नहीं रमती थी। ऋद्धियोंके स्थान वैभार पर्वतपर योगका अन्त होनेपर उसने अपने सुधी पिता सहस्रायुधको देखा। वहां तपका आचरण कर वे दोनों ऋषियुगल मृत्युको प्राप्त हुए और सिर्फ उपरिमग्रेवेयक विमानमें उत्पन्न हुए।
__घत्ता-वे दोनों उनतीस सागर प्रमाण समय तक सुखका भोग करते हुए स्थित रहे । वे भरतक्षेत्रके ऊपर चलनेवाले सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र और सुरसमूहके लिए प्रिय थे ।।२४।।
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त, महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यमें वज्रायुध चक्रवर्ती-वर्णन
नामका इकसठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६॥
२४.१. AP संसारि। २. AP वउ। ३. AP वइभारि महीहरि सिद्धिठाणि । ४. P मुयउं । ५. AP
णवर । ६. A अहिमरय । ७. AP पुप्फदंत ।
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