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-५४. १७. १२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-रक्खंतहं णियवइणिब्भयहं पहरणेहिं पहरंतहं ।।
तं आयउ सयलहं पत्थिवह झत्ति धरंत धरंतहं ॥१६॥
दुवई-देवासुरणरिंदफणिखेयरकिंणरदप्पहारयं ।
भुयणुज्जोयकारि माणिक्कमऊह विराइयारयं ।। भाणुबिंबु णं किरणहिं जेडियउं वासुएवकरणियडइ पडियउं । धरिवि तेण करि जंपिउं एहउं एवहिं तुज्झु सरणु कहिं केहउं । करहि केर बलएवहु केरी
अणुहुंजहि संपय गरुयारी। ता पडिसत्तु चवइ विहसेप्पिणु मंडाखंड भिक्ख पावेप्पिणु । जिह णच्चइ संतोसें देसिउ तिह तुहुँ एण रहंगें हैरिसिउ । रासहु होइवि हथिहि लग्गइ. वायसु होइवि गरुडहु विगंहि । पत्थर होइवि मेरु व मण्णहि अप्पउ वारु वारु किं वण्णहि । रे गोवालबाल णउ लजहि __ महुं अग्गइ भडवाएं भजहि ।। घत्ता-लइ रक्खउ तेरउ सीरहरु एवहिं मारमि लग्गउ ॥
किं चुक्कइ काणणि केसरिहि दिट्रिपंथि णिब्वैडिउ म ॥१७॥
घत्ता-अपने स्वामीको निर्भय बनानेवाले रक्षकोंके अस्त्रोंसे प्रहार करते हुए और समस्त . राजाओंके पकड़ते हुए भी वह चक्र आया ॥१६॥
देव, असुर, नरेन्द्र, नाग, विद्याधर और किन्नरोंका दर्प हरण करनेवाला, विश्वको आलोकित करनेवाला, माणिक्य किरणोंसे शोभित आराओंवाला, किरणोंसे विजड़ित सूर्यबिम्बके समान वह चक्र वासुदेवके हाथके निकट आकर ठहर गया। उसने उसे हाथमें लेकर यह कहा कि "बताओ इस समय तुम्हारी शरण कौन है ? तुम बलभद्रकी आज्ञा मानो और अपनी भारी सम्पत्तिका भोग करो।" तब प्रतिशत्रु तारक हंसकर कहता है, "अपूपखण्ड भीखमें पाकर देशी आदमी जैसे सन्तोषसे नाच उठता है, वैसे ही तुम इस चक्रसे प्रसन्न हो रहे हो, गधे होकर तुम सिंहसे लड़ते हो । कोआ होकर गरुड़से युद्ध करते हो, पत्थर होकर अपनेको मेरु समझते हो, अपने आपको रोको-रोको, स्वयंका क्या वर्णन करते हो ? रे-रे ग्वाल बच्चे, शर्म नहीं आती। मेरे आगे सुभट हवा भग्न करना चाहता है।
पत्ता-ले तू अपने बलभद्रको बचा, इस समय लड़ते हुए उसे मारता हूँ। क्या जंगलमें सिंहके दृष्टिपथमें आया हुआ मृग बच सकता है ?" ॥१७॥
१७.१. A जलियउ । २. A भिक्खु । ३. P रहसिउ । ४. AP वग्गहि । ५. AP णिवडिउ । ६. AP
गउ ।
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