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महापुराण
वसिहं वसिहूई दिणकरा
तिउणियदहलक्खई भुत्त धरा ।
धत्ता- तुहिणविणिग्गमणि महुआगमणि तीरोसँरियजलालउ । रविकिरणहिणिवि हिमकण घुणिवि गिंभें जित्तु सियाल ||७|
[ ५५.७.१४
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काले कालु पलट्टियउ | जणु तो विण जुंजइ धम्मइ । दिवि दिवभोमाणियउं । तिहिं णाहिं तिहुवणु जाणियउं । हा मई विण अपरं चेइयउं । मयरद्धयबाणहिं जोहियउ । अण्णम अण्णु अण्णागु जिहे । अहिसित्तड सुरवरपंतियहिं । ग झत्ति सहेजयणाम वणु ।
अवलोइवि सो दलवट्टियउ पहु चितइ अणुदिणु परिर्णवइ चिरुचित्तु दुचित्तहु णीणिय उं पुणु जीवि जम्मणु आणियउं इंदियव सेण ण विवेइयउं
पुत्तकतह मोहियउ अच्छइ णणियच्छमि किं पि कि ता संवोहिउ लोयंतियह किउ देवयत्तसिविया रुहणु
घत्ता-माहच उत्थियहि ससहरसियहि छौवीसमि णक्खत्तइ ॥ सहुं सहसें विहं इच्छियसिवहं थिउ जिणु जइँणचरित्तइ ||८||
राज्यगद्दी ( राज्यत्व ) पर स्थापित किया । तीनगुना दस - अर्थात् तीस लाख वर्ष उन्होंने धरती-, का भोग किया ।
धत्ता - हेमन्तके निर्गमन और वसन्तके आगमनपर ग्रीष्म ऋतु में सूर्यकिरणोंसे हिमकणोंको नष्ट कर जिसके तोरसे जल समूह हट गया है ऐसे शोतकालको जीत लिया ||७||
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उस ( शीतकाल ) को ध्वस्त देखकर प्रभु विचार करते हैं कि "कालके द्वारा काल बदल दिया गया । मनुष्य प्रतिदिन बदलता रहता है फिर भी वह धर्ममतिसे युक्त नहीं होता । पहले मैंने चित्तको दुराचरणसे निकाला था, तथा स्वर्ग में दिव्यभोगोंका उपभोग किया। फिर जोवन जन्मको प्राप्त हुआ । ज्ञानसे त्रिभुवनको जान लिया। लेकिन इन्द्रियोंके वशीभूत होकर मैंने विवेक से काम नहीं लिया । हा, मैंने स्वयंको नहीं चेताया । मैं धन, पुत्र और कलत्रमें मोहित हूँ, कामदेव के बाणोंके द्वारा देखा गया हूँ। किसी भी वस्तुको मैं किसी प्रकार विद्यमान ( स्थिर ) नहीं देखता हूँ । अज्ञानी के समान भ्रान्त चित्त में अन्य हूँ ।" तब लौकान्तिक देवोंने सम्बोधित किया और देवोंकी पंक्तियोंने अभिषेक किया। उन्होंने देवदत्ता नामक शिविकापर आरोहण किया और वह शीघ्र ही सहेतुक नामक उद्यानमें पहुँचे ।
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पत्ता - माघशुक्ला चतुर्थी के दिन छब्बीसवें उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में शिवकी इच्छा रखनेवाले एक हजार राजाओंके साथ वह जिन जैनचरित्रसे स्थित हो गये ||८||
७. A तीरोसरिउ ।
८. १. AP परिणम । २. AP घम्मे मइ । ३ AP घणमित्तं । ४ A किहा । ५. A जिहा । ६. A बावीस म and gloss श्रवणनक्षत्रे । ७. A जइचारितइ ।
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