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-५७. २८. १२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित मुउ सव्वत्थसिद्धि संपत्तउ सवरु वि पावै गरई णिहित्तउ । सत्तमि तमतमपहि भीसावणि पंचपयारदुक्खदरिसावणि । घत्ता-धादइसंडइ सुरवरदिसहि मेरुहि परविदेहि सरइ ॥
गंधिजदेसि उज्झाउरिहि णरवइ अरुहदासु वसइ ॥२७॥
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कामहुयासहु णं कालंबिणि सुवय णामें तासु णियंबिणि। अवेर वि तह जिणयत्त घरेसरि अमरमहामयरहरहु णं सरि । अच्चुयचुय तेएं णं दिणयरु
रयणमाल रयणाउह सुरवरु। बिहिं वि बेण्णि- संजणिय तरह। विजय विहीसण णवपंकयमुह । ते बेण्णि मि णं छणससिसायर ते बेण्णि वि बलकेसव भायर । बीयहु णरयहु गयउ विहीसणु दुद्धरु तउ करेवि संकरिसणु । लंतवि जायउ देउ महामहु आइच्चाहु हउं जि सो सुहवहु । सम्मईसणसासणि लग्गउ मई संबोहिउ णरयहु णिग्गउ । जंबुदीवएरावयउज्झहि
सिरिवम्महु सीमहि तणुमज्झहि । सो केसवु दुहं मुंजिवि आयउ । लच्छिधामु णामें सुउ जायउ । रिसिहि विणासियवम्महलीलह चिरु पावइयउ पासि सुसीलहु ।
पत्तउ बंभकप्पि मेल्लिवि तणु अट्ठगुणट्ठिवंतु देवत्तणु । करते हुए वायुधको देखा और उसे मार डाला। वह मरकर सर्वार्थसिद्धि पहुंचे। वह भील भी मरकर, भयंकर पांच प्रकारके दुःखोंका प्रदर्शन करनेवाले तमतमप्रभा नामक सातवें नरकमें डाल दिया गया।
पत्ता-धातकोखण्डमें पूर्वदिशामें सुमेरुपर्वतके अपर विदेहमें गन्धिल देशकी अयोध्या नगरीमें भोगयुक्त राजा अहंदास रहता था ॥२७॥
२८ कामदेवको अग्निको शान्त करनेवाली मेघमालाके समान उसकी सुव्रता नामकी पत्नी थी और भी उसकी जिनदत्ता नामको गृहेश्वरी थी, जो मानो क्षीरसमुद्रके लिए नदी हो। अच्युत स्वर्गसे च्युत होकर और तेजमें मानो दिवाकरके समान रत्नमाल और रत्नायुध सुरवर भाग्यसे दोनोंके पुत्र हुए-नवकमलके समान मुखवाले विजय और विभीषण नामसे। वे दोनों ही पूर्णचन्द्रमा और समुद्र थे, वे दोनों ही बलभद्र और नारायण थे। विभीषण दूसरे नरक गया और बलभद्र दुर्धर तपकर महाआदरणीय लान्तव देव हुआ। सुखावह वही में आदित्य नामका देव हूँ। मेरे द्वारा सम्बोधित होनेपर सम्यग्दर्शनके शासन में लगकर वह नरकसे निकला और जम्बूद्वीपके ऐरावतक्षेत्रको अयोध्या नगरीमें वह केशव दुःख भोगकर आया और श्रीवर्माकी कृशोदरी पत्नी सीमासे श्रीधर नामका पुत्र हुआ। कामदेवकी लीलाका नाश करनेवाले सुशील मुनिके पास उसने दीक्षा ली। और शरीर छोड़कर ब्रह्म स्वर्गमें आठ गुणोंमें निष्ठा करनेवाले देवत्वको प्राप्त हुआ।
२८. १. AP सुव्वइय । २. AP अवरु वि । ३. A णंदण ससिसायर ।
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