________________
३८३
-६०. ३२. ६ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित देवत्तणु माणिवि णरजाया किं पहरह उग्गामियघाया। तं णिसुणिवि कुमार हयछम्महु तर चरेवि पयमूलि सुधम्महु । गय मोक्खह णिक्खवियरओहह अट्रमहागणविरहयसोहह । जो सिरिसेणु पुणु वि जो कुरुणरु पढमकप्पि सो जाउ वरामरु । सिरिपहु सुरहरि णं ससहरपह हुय हरिणंदियज विज्जुप्पैह । कुरुमणुयत्तणु माणिवि बहुमेहु देवि अणि दिय दिवि विमलप्पहु । सुरु हूई पुणु बंभणि वयसह सच्चभाम तहु कंत ससिप्पह । घत्ता-जो सिरिसेणु महाइउ कुरुणरु सुरु सग्गाइउ ।।
सो एवहिं तुहुं जायउ अमियतेउ खगरायउ ॥३१।।
जा सा सइ पंचाणणणंदिय सा जोइप्पह घरिणि अणिंदिय । पुणु हूई सिरिविजउ वियाणहि सोत्तिणि सच्चभाम अहिणाणहि । जा सा धुवु सुतार सस तेरी सुरणरविसहरहिययवियारी। कविलु सुइरु हिंडिवि संसारइ भूयरमणकाणणि भयगारइ । पविउलअइरावयणइतीरइ
कोसियतावसमुत्तसरीरइ । चवलवेयतवसिणियइ जणियउ सो मयसिंगु णाम सुउ भणियउ । पूर्वजन्मको प्रेमका परिपालन करनेवाली तुम्हारी माँ हूँ। तुम देवत्वका भोग कर मनुष्य रूपमें जन्मे हो। घात उठाये हुए प्रहार क्यों करते हो?" यह सुनकर दोनों कुमार क्रोधका नाश करनेवाले सुधर्मा मुनिके चरणमूलमें तपका आचरण कर, जिसमें पापोंके समूहका क्षय हो गया है और जिसमें आठ महागणोंकी शोभा है ऐसे मोक्ष चले गये। जो श्रीषण था और जो करुनर हुआ था वह प्रथम स्वर्गमें श्रेष्ठ देव हुआ-श्रीप्रभ नामक विमानमें श्रीप्रभ नामका। सिंहनन्दिता नामको रानी उसी स्वर्गमें विद्युत्प्रभ देव हुई। कुरु भोगभूमिके सुखोंको मानकर अत्यधिक तेजवाली देवी अनिन्दिता स्वर्गमें विमलप्रभ नामका देव हुई। व्रतोंको सहते हुए ब्राह्मणी सत्यभामा शशिप्रभा ( शुक्लप्रभा ) नामकी उसको देवी हुई।
पत्ता-जो आदरणीय श्रीषेण था, कुरुनर और देव, वह स्वर्गसे आकर इस समय तुम अमिततेज नामक विद्याधर राजा हुए हो ॥३१॥
३२ जो सती सिंहनन्दिता थी वह ज्योतिप्रभा नामकी तुम्हारी गृहिणी है। और जो अनिन्दिता थी वह श्रीविजय हुई, यह जानो। और जो सत्यभामा ब्राह्मणी थी, उसे तुम सुर, नर और विषधरोंका हृदय विदारित करनेवाली तुम्हारी बहन सुतारा निश्चित रूपसे पहचानो। वह पुराना कपिल संसारमें लम्बे समय तक परिभ्रमण कर भयंकर भूतरमण काननमें विशाल ऐरावती नदीके किनारे जिसके शरीरका भोग कौशिक तपस्वीने किया है, ऐसी चपलवेगा नामक
२. AP माणवि । ३. A कुमारयछम्महु । ४. P विज्जापह । ५. A बहसुहु। ६. AP बंभणि पुणु ।
७. सच्चभाव । ३२. १. AP सच्चभाव । २. P रमणि काणणि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org