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-६१. १०.५]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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सा भणइ महापहु विजयकंखु होतउ सिवमंदिरि कणयपुंखु । तहु तणउ तणउ कित्तिहरु राउ एयहु दमियारिहि होइ ताउ । संतियरहु सीसु मुएवि राउ थिउ वरिसमेत्तु परिमुक्ककाउ । अच्छइ भो केवलि जाहं एहू भत्तिइ वंदहुं वोसट्टदेहु । ता सम्वइं भवई तहिं गयाई वंदेप्पिणु परमप्पयपयाई। लायण्णवण्णणिज्जियसिरीइ
आउच्छिउ चामीयरसिरीइ । भणु देवदेव णियजणणमरणु मई दिट्ठउ किं सुहिसोयकरणु । तं सुणिवि कहइ समसत्तुमित्तु मुवणत्तयणवराईवमित्तु । धत्ता-इह दीवि भरहि संखउरवरि वणि देविलु चक्कलथणिय ॥
बंधुसिरि घरिणि गुणगणणिलय सुय सिरिदत्त ताइ जणिय ॥९॥
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पुणु कुंटि' पंगु अण्णेक दीण अण्णेक बहिर णउ सुणइ वाय अण्णेक्क एक्कलोयणिय जाय लहुबहिणि करुणे तोसियाउ वणि संखमहीहरि सीलबाहु.
जिल्लक्खण हूई हत्थहीण । खुज्जी अण्णेक विमुक्कछाय । पिउ मुउ कालें गय मरिवि माय । छ वि एयउ पई घरि पोसियाउ । अवलोइट सम्वसंकु साहु ।
तब विजया कहती है कि शिवमन्दिर नगरकी विजयका अभिलाषी राजा महाप्रभु कनकपुंख था। उसका पुत्र कीर्तिधर राजा है, इस दमितारिका वह पिता है। यह राज्य छोड़कर शान्तिकर मुनिके शिष्य होकर, एक वर्ष तक कायोत्सर्गसे स्थित रहे हैं। अरे कायोत्सर्गमें स्थित वह केवली हैं। जाओ और भक्तिसे इनकी वन्दना करो। तब सब भव्य वहां गये । परमात्माके चरणोंकी वन्दना कर सौन्दर्य और रूपमें लक्ष्मीको पराजित करनेवाली स्वर्णश्रीने पूछा-'हे देवदेव बताइए, मैंने सुधोजनोंके शोकका कारण अपने पिताका मरण क्यों देखा।" यह सुनकर शत्रुमित्रमें समान भाव रखनेवाले बोले
पत्ता-इस द्वीपके भरत क्षेत्रमें शंखपुर नगरमें देविल नामका वणिक् था। उसकी गोल स्तनोंवाली बन्धुश्री नामकी पत्नी थी। उसने गुणसमूहको घर श्रीदत्ता नामकी कन्याको जन्म दिया ॥२॥
फिर बौनी लँगड़ी एक और दोन लक्षणशून्य और हाथसे हीन हुई। एक और बहरी थी, जो बात नहीं सनती थी। एक और कान्तिसे रहित. बात नहीं सनती थी। एक दसरी एक आंखवाली कन्या उत्पन्न हुई। पिता मर गया और समय आनेपर माता भी मरकर चली गयी। करुणासे परिपूर्ण होकर तुमने इन छहों कन्याओंका घरपर पालन-पोषण किया। वन में शंखपर्वत
९. १. AP दमयारिहि । २. AP केवलि भो । ३. AP भणइ । ४. A भरह । १०. १. A कुंट; P कुट्टि । २. AP सच्छवि । ३. A सच्चजसंक ।
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