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कणयलया सररुहलय णामें धी बेणि तोहि मृगणेत्तउ विज्जैमईदेवि हि यदुम्मइ अमियसेण कंतियहि णवेष्पिणु सा गय सग्गहु आराईयहु सुर जोएवि सुरूवें रंजिय काले जंत सुरलोयहु चु कणयलया जलरुहलय धीयउ इंदरविंद से पंकयमुह सोक्खु असंखु सुरु मुंजे पिणु हुई कहिं म महाबलकामिणि
महापुराण
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णियेकर भल्लि घित्त णं कामें । कयलीकंदल को मलगत्तउ । तासु जि रायहु सुय पोमावइ । कणयमाल सावयवउ लेपिणु । भोयभारसंपीणिर्ये जीवहु । पोमावइ हूई सुरलंजिय । कणयमालकुंडलि हउं हुउ । बेणि विरिवि सुकम्म विणीयउ । जाया रणराहितणुरुह । सुरलंजिय सग्गाउ चऐप्पिणु । दिor विवाहितु गयगामिणि । तं चक्खु विदिट्ठरं ॥ दोहिं मिजुज्झु णिवारहुं ||३०||
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घत्ता - जं जिणणाहें सिट्ठउं हउं आयउ ओसारहुं
कासु वि को विण किं किर जुज्झहु हउं मायरि चिरु तुम्हई तणयउ
[ ६०.३०. १
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भवसंसरणु ण किंपि वि बुज्झहु । हतियार परिपालियपेणयड ।
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उसकी कनकलता और पद्मलता नामकी सुन्दर कन्याएं थीं, जो मानो कामदेवके द्वारा फेंकी गयी उसके हाथ की भल्लिकाएँ थीं । उसकी दोनों कन्याएँ मृगनयनी और कदली कन्दल के समान कोमल शरीरवाली थीं। उसी राजा ( चक्रध्वज ) की विद्युत्मती देवीसे दुर्मतिको नाश करनेवाली पद्मावती नामकी देवी हुई । अमितसेना नामकी आर्यिकाको प्रणाम कर कनकमाला श्रावक व्रत लेकर जिसमें भोगोंके भारसे जीव प्रसन्न रहता है, ऐसे सौधर्म स्वर्ग में गयी । देवको देखकर पद्मावती रूपसे रंजित हो गयो और वह स्वर्ग में दासी हुई । समय बीतनेपर स्वर्गलोक से च्युत होकर मैं कनककुण्डली देव हुई हूँ । कनकलता और पद्मलता अपने कर्मसे विनीत दोनों पुत्रियाँ मरकर कमलमुख इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन के नामसे रत्नपुरके राजाकी पुत्र हुई हैं । बहुत समय तक असंख्य सुखका भोग कर, वह देवदासी स्वर्गसे च्युत होकर कहीं अनन्तमती नामकी वेश्या हुई । और वह गजगामिनी तुम्हें विवाह में दी गयी ।
घत्ता -- जो कुछ जिननाथने कहा था, उसे मैंने आज यहाँ प्रत्यक्ष देख लिया । आज मैं तुम दोनों को युद्ध से मना करने और अलग करने आया हूँ ||३०||
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कोई किसी से कुछ भी युद्ध न करे, संहारके परिभ्रमणको क्या कुछ भी नहीं समझते । मैं
३०. १. A णिवकर । २. A तहो मिगं ; P ताहि मिगं । ३ AP विज्जमई । ४. AP जीयहु । ५. AP सवें । ६. A चुएप्पिणु ।
३१. १. A पालियविणयउ ।
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