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३५६ . महापुराण
[ ५९. १८. ५सुरणरकामिणियणणलिणरवि सो सणकुमारु किं दिट्ठ वि। माणुसु णवैत्थि रूउजलउं
जेणेहउं भासिङ मोक्कलउं । ता झ ति समागय तियस तहिं अच्छइ वसुहेसरु भवणि जहिं । अवलोइवि णरवइ सुरवरहिं अहिणंदिउ विहुणियसिरकरहिं ।
रूवें तेल्लोकरूवविजइ . एहउ सुरिंदु दुक्करु हवइ । १० जिणणाहु वि जहिं संसइ चाँइ तहिं अवरु रूउ किर कहिं घडइ ।
घत्ता-पयडेवि सरूवई सोम्मसहावई विहसि वि देवहिं भासिउं ।।
जइ मरणु णे होत उ तो पज्जत्तउ एउ जि रूउ सुहासिउं ॥१८।।
ता जरमरणसंद आयण्णिवि मण्णिवि तणु व महियलं । देवकुमारणामे सुइ अॅप्पिवि सतुरंगं समयगलं ॥१॥ णिञ्चतिगुत्तिगुत्तसिवगुत्तमहामुणिपायपंकयं । तेणासंघिऊण पक्खालिय बहुभवपावपंकयं ।।२।। गहियं वीरपुरिसचरियं चित्तं तडिदंडचंचलं । रुद्धं चंडकुसुमसरकंडाडंबरडमरविभलं ।।३।। ससिडिंडीरपिंडपंडुरयरहिमपडछइयदेहयं ।
वसियं बाहिरम्मि परिसेसियघरपंगुरणणेहयं ॥४॥ सुर-नर-कामिनियोंके नेत्ररूपी कमलोंके लिए सूर्यके समान उस सनत्कुमारको देखा या नहीं।" तब रूपसे सुन्दर मनुष्य है या नहीं, स्वच्छन्द रूपसे जिन देवोंने यह कहा था, वे शीघ्र वहां आये जहां अपने भवनमें वह पृथ्वीश्वर था। सुरवरोंने उसे देखा, और अपने सिर और हाथ हिलाते हुए उसका अभिनन्दन किया। रूपसे त्रिलोकके रूपकी विजयमें यह देवेन्द्र के लिए दुष्कर होगा, इसके रूपको देखकर जिनेन्द्रके रूपमें सन्देह होने लगता है तब वहाँ दूसरा रूप कहाँ गढ़ा जा सकता है ?
___ पत्ता-तब अपने सौम्य-स्वभाव रूपको प्रकट करते हुए देवोंने हँसकर कहा कि यदि मरण न हो, तो यह सराहनीय रूप पर्याप्त है ॥१८॥
१९ तब जरा और मरण शब्द सुनकर और महीतलको तृणके समान समझकर, देवकुमार नामके पुत्रको अश्व और मैगल सहित धरती देकर, नित्य तीन गुप्तियोंसे गुप्त शिवगुप्त महामुनिके चरणकमलोंकी शरणमें जाकर उसने अनेक जन्मके पापोंका प्रक्षालन किया तथा वीर पुरुषके चरितको स्वीकार कर लिया, बिजलीकी तरह चंचल तथा प्रचण्ड कामके बाणोंके आडम्बरके भयसे विह्वल चित्तको रोक लिया। चन्द्र फेन समूहवत् अति धवलवर्ण हिम पटलकी कान्तिके
१८. १. Pणेवि । २. A णयत्यि । ३. A वडइ। ४. AP सोम । ५. A ण हंतउ ता; Pण हु तउ तो। १९. १. AP°मरणघोसु । २. AP अप्पवि । ३. A°कंडंडंबर । ४. A पंडुरपरहिम ।
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