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-६०. ४.१०]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित अमियतेज णियरजि थवेप्पिणु भत्तिइ तउ तिव्वयरु तवेप्पिणु । अक्ककित्ति जइवइ गउ मोक्खहु मुक्कउ भवसंसरणहु दुक्खहु । विजयभदु सिरिविजयहु वच्छलु जिह तिह अमियतेउ णिरु णेहलु । पाहुडगमणागमणपवाह
जाइ कालु बंधुहुँ उच्छाहे । घत्ता-जा तावेक्कु सुसोत्तिउ तहिं आयउ णिम्मित्तिउँ ।।
सत्तमि दिणि जं होसइ तं सिरिविजयहु घोसइ ॥४॥
अरिपुरवरणिवसावयवाहहु तडि णिव डेसइ पोयणणाहहु । तडयडंति सिरि दत्ति भयंकरि सहसा दविप्राणखयकरि। विजयभद्दु पभणइ रे बंभण णिय सज्जणहिययणिसुंभण । जइ रायहु सिरि विज्जु पडेसइ तो तुहुँ सिरि भणु किं णिवडेसइ। तं आयण्णिवि तणुविच्छायहु दियवरु आहासइ जुवरायहु । पत्थिव महु मत्थइ मलमुक्कई णिव डिहिंति गाणामाणिकई। मरणवयणवाएं विदाणउ
तहिं अवसरि सई पुच्छइ राणउ । को तुहं कासु पासि कहिं सिक्खिउ के भविस्सु बप्प पई लक्खि । अक्खइ सुत्तकंठु पुहईसहु
हउं पवइयउ समउं हलीसह । गउ विहरंतु देसि पुरु कुंडलु
णं महिणारिहि परिहिउ कुंडलु । कलत्रको तृगके समान समझकर, अमिततेजको अपने राज्यमें स्थापित कर, भक्तिसे तीव्रतम तप तपकर यतिपति अकीर्ति मोक्ष गया और इस प्रकार संसारके दुःखसे दूर हो गया। जिस प्रकार श्रीविजयका प्रिय विजयभद्र, उसी प्रकार और स्नेही अमिततेज, उपहारोंके आने-जानेके प्रवाह और उत्साहसे दोनों बन्धुओंका जब समय बीतने लगा
पत्ता-तब एक ज्योतिषी ब्राह्मण वहां आया, और सात दिन बाद जो होनेवाला था, वह उसने श्रीविजयको बताया ॥४॥
"शत्रुनगरके राजारूपी श्वापदके लिए व्याधा पोदनपुरनरेशके सिरपर तड़तड़ करती हुई शीघ्र और अचानक दसों प्राणोंका अन्त करनेवाली भयंकर बिजली गिरेगी।" इसपर विजयभद्र कहता है-“हे निर्दय, सज्जनोंके हृदयको चूर-चूर करनेवाले ब्राह्मण, यदि राजाके सिरपर वज्र गिरेगा, तो तू बता तेरे सिरपर क्या गिरेगा?" यह सुनकर द्विजवर शरीरसे कान्तिहीन युवराजसे कहता है-'हे राजन्, मेरे सिरपर मलसे रहित नाना मणि गिरेंगे।' उस अवसरपर मरण शब्दको हवासे शुष्क राजा स्वयं पूछता है-"तुम कौन हो, किसके पास तुमने कहाँ यह सीखा है ? हे सुभट, तुमने किस प्रकार भविष्य देख लिया ?" ब्राह्मण राजासे कहता है कि "बलभद्रके साथ मैं प्रवजित हुआ था। देशमें विहार करते हुए मैं कुण्डलपुर पहुंचा, जो ऐसा लगता था
६. AP णेमित्तिउ । ५. १. A सिरि दुत्ति; P सिरि दत्ति। २. AP°पाण। ३. AP°वायइ । ४. AP किर । ५. P केम
इहु भविस्सु।
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