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-५६. ९.१६ ]
मायंगसीद्देहिं । मेहेहि वाहिं ।
पंचास सरहिं फणिपक्खिराएहिं पहरंति ते बे वि महुणा पजंपिय धत्ता-किं धम्में गयभडकम्में जो पहरणु णावेक्ख ॥ मई कुद्धइ जयसिरिलुद्धइ एमहिं को पई रक्खइ ||८||
ता चक्कु कर लेवि । किं दविणु महुं हिउं ।
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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दुवई - ता दामोदरेण रिउ दुछिउ धम्मपहाणुओंरिणा ॥ एण रहं गएण दारेवडं तुहुं महं कित्तिकारिणा ॥
हरिह विउसयण
विणुण खयकरणु रणि मुक्कु हि चलिडं
समियकु
अहिणव तं धरिवि
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दोहरेण
विष्फुरिवि माहवेण aणु गणि
भुवि । सुंदरिहि ।
कयवयण- ।
तणुण ।
रहचरणु । खणि दुक्कु ।
जलज लिउँ ।
करि थक्कु ।
केस बहु |
छलु भरिवि । मच्छरेण ।
हुंकरिव । घणरवेण ।
अरिभणिउं ।
९. १. दामोयरेण । २. P पहाणुरायणा । ३. A जले जलिउ ।
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चिरकालीन वैरसे लिप्त है, और जिन्होंने धनुर्वेद में प्रवृत्ति प्राप्त की है, ऐसे गरुडेश और मधुराजने तीर फेंके। सिंह-सरभ तीरों, गज-सिंह तीरों, नाग-गरुड़ तीरों और मेघ वायु तीरोंसे वे दोनों प्रहार करते हैं। इतनेमें चक्र हाथमें लेकर मधु बोला- तुमने मेरे धनका अपहरण क्यों किया ?
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घता- —जो अस्त्रको नहीं देखता, उस धर्म और गजयोद्धा कर्मसे क्या ? यशरूपी श्रीके लोभी मेरे क्रुद्ध होनेपर इस समय कौन तुम्हारी रक्षा करता है ? ||८||
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तब दामोदरने दुश्मनको फटकारा कि धर्मपथका अनुकरण करनेवाले और कीर्तिकारी. इस चक्रसे में तुम्हें मारूंगा ? यह सुनकर, अपनी भुजाएँ ठोककर, मनहरी - सुन्दरीके पुत्र, विद्वज्जनों द्वारा शब्दों संस्तुत मधुने विनाश करनेवाला चक्र छोड़ा। वह एक क्षण में पहुँचा । आकाशमें चला चमकता हुआ । शान्त सूर्यकी तरह अभिनव केशव के हाथमें स्थित हो गया। उसे धारण कर, साहस कर भारी मत्सरके साथ विस्फुरित होकर, हुंकार कर, मेघ के समान शब्दवाले माधव
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