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-५७. ३.३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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रायमहारिसि मुक्कवियारउ सो सुयणायाणायवियारउ। जाइ जणिउ सा धण्णी णिव सइ णरवइ वइजयंतु तहिं णिवसइ । गेहिणि भव सम्वसिरिणामें सुय उप्पण्णा सुहपरिणामें। संजयंतु अण्णेक्कु जयंतउ अणिहणजसधवलियतिजेयत्तउ । सारसमिहुणसरालवणंतरि णासियसोय असोयवणंतरि । एकहिं दिणि दक्खवियरहतहु पयजुयल वंदिवि अरहंतहु। धम्मु अहिंसावंतु सुणेप्पिणु अहिउल्लउँ मुणिमैग्गि थैवेप्पिणु । वइजयंतणामहु सहेप्पिणु
संजयंततणयहु महि देप्पिणु। ते तिविहे णिवेएं लइय
छिदिवि मोहलोहदुर्लइय । आमेल्लियणियसुललियजाया पिउ पुत्तय तिण्णि मि रिसि जाया इय तवविहिहि णिति किर के बलु बप्पहु उप्पण्णउ जहिं केवलु। __ पत्ता-तहिं आयहु देवहु फणिवइहि रूवु णिहालिवि हिययहरु ॥
णिज्झायइ लुद्ध जयंतु मुणि जइ फलु देसइ सुतवतरु ॥२॥
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तो मज्झु वि एहउं लाएण्णउं एव णियाणणिबंधणबंधउ मुउ जयंतु संपत्तइ कालइ
होजउ भवि सोहग्गाइण्णउं । जणु तिहिं सल्लहिं सयलु वि खद्धउ । जायउ विसहरिंदु पायालइ ।
उसमें विकारोंसे मुक्त, राजाओंमें प्रधान, शास्त्र तथा न्याय-अन्यायका विचार करनेवाला राजा वैजयन्त निवास करता है। जिस सतीने उसे जन्म दिया, वह धन्य है। उसकी भव्य सर्वश्री नामकी गृहिणी थी। शुभ परिणामसे उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए, संजयन्त और जयन्त, जो अपने अनाहत यशसे तीनों लोकोंको धवलित करनेवाले थे। एक दिन जिसमें सारस दम्पतिका शब्दरूपी जल है, ऐसे अशोक वनमें, अन्तरायका अन्त दिखानेवाले अरहन्तके, शोकको नष्ट करनेवाले पदयुगलकी वन्दना कर, अहिंसामय धर्म सुनकर अपने हृदयको मुनिमार्गमें लगाकर, संजयन्तके युत्र वैजयन्तको बुलाकर उसे धरती देकर वे तीनों (पिता वैजयन्त, संजयन्त और जयन्त ) वैराग्यको प्राप्त हुए। मोह-लोभरूपी दुर्लताको काटनेके लिए अपनी सुन्दर पत्नियां छोड़कर पिता और दोनों पुत्र, तीनों ही मुनि हो गये। कितने लोग ऐसे हैं कि जो तपके द्वारा बलको प्राप्त होते हैं। वहां पिताको केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
घत्ता-वहाँ आये हुए देव, नागराजका सुन्दर रूप देखकर लोभी जयन्त मुनि अपने मनमें विचार करता है कि (उसका) सुतपरूपी वृक्ष यदि फल देता है- ॥२॥
तो वह आगामी जन्ममें मेरा सौभाग्यसे व्याप्त ऐसा लावण्य हो। इस प्रकार निदानके बन्धनसे बंधा हुआ मनुष्य तीनों शल्योंसे विनाशको प्राप्त होता है। समय पूरा होनेपर जयन्त २. १. AP°तिजयंतहु । २. A जिणमग्गि। ३. T सुणेप्पिणु सुष्छु नीत्वा। ४. AP दुल्ललिय ।
५. A बप्पहं । ३. १. AP'बदउ।
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