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-५५. १०.३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
२७९
तहिं दिणि जयवइ उववासियउ । मणपज्जवणाणे भूसियउ । बीयइ दिणि आयउ णंदउरु णंदेण णमंसिउ पुरिसंपुरु । झाणाणलहुयवम्मीसरहु
आहारु दिण्णु परमेसरहु । मणिपुंजे ढंकिउ तासु गिहु तहिं चोज्जु वियंभिउं पंचविहु । छउँमत्थं मेइणियलु भमिवि संवच्छर तेण तिण्णि गमिवि । दिक्खावणि जंबूरुक्खयलि माहम्मि मासि ससियरधवलि । छट्ठइ दिणि दिवसभाइ अवरि छन्वीसमि जायइ उडुपवरि । देवे केवलु उप्पाइयउं
तियसउलु ण कत्थइ माइयां । गयणग्गलग्गमाणिक्कसिहु
संपत्तउ दहविहु अट्ठविहु । छाइयणहमंडल पंचविहु सोलह विहु तेत्थु वि तं तिविहु । पत्ता-थुणइ सुराहिवइ कुसुमई घिवइ अरुहहु उप्परि पायहं ।।
जिण तुहुँ गयमलिणि हियवयणलिणि वसहि रिसिहि हयरायहं ॥९॥
१०
बत्तीसह इंदहं तुहुं हियइ तुहं चंदु ण चंदु विमलवहणु तृहुं सरहि ण सरहि वि खारजडु
तुहं संसेविउ सासयसियइ । तुहुं सूरु ण सूरु वि गिड्डहणु । तुहुं हरु णउ हरु वि पमंत्तु णडु ।
९
उसी दिन जगत्पतिने उपवास किया और मनःपर्ययज्ञानसे विभूषित हो गये। दूसरे दिन वह नन्दपुर गांव आये। उन श्रेष्ठ पुरुषको नन्दने नमस्कार किया। ध्यानकी अग्निमें कामदेवको भस्म करनेवाले परमेश्वरको उन्होंने आहार दिया। रत्नसमूहसे उसका घर आच्छादित हो गया। वहां पांच आश्चर्य प्रकट हुए । छद्मस्थ रूपमें धरतीमें विहार कर उन्होंने तीन साल बिता दिये । माघ शुक्ला षष्ठीके दिन, दीक्षावनमें ही जम्बूवृक्षके नीचे दिनके अन्तिम भागमें, छब्बीसवें उत्तराभाद्र नक्षत्र में देवको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। देवकुल कहीं भी नहीं समा सका। जिनके माणिक्योंकी शिखाएँ आकाशतलको छू रही हैं, ऐसे आठ प्रकार और दस प्रकारके देव आये । और आकाशमण्डलको आच्छादित करनेवाले पाँच, सोलह और तीन प्रकारके देव वहाँ आये।
घत्ता-देवेन्द्र स्तुति करता है, और अरहन्तके चरणोंके ऊपर पुष्प वर्षा करता है कि "हे जिन, तुम मुनियोंके द्वारा रागको नष्ट करनेवालोंके मलसे रहित हृदयरूपो कमल में बसते हो" ||९||
१० तुम बत्तीसों इन्द्रोंके हृदयमें हो, तुम शाश्वत श्रीके द्वारा सेवित हो, तुम चन्द्र हो, चन्द्रमा विमलवाहनवाला नहीं है । तुम सूर्य हो, जलनेवाला सूर्य सूर्य नहीं । तुम समुद्र हो, खारे जलवाला
९.१.A जइवइ । २. AP गंदिउरु । ३. AP पुरिसवरु । ४. A छम्मत्थें । ५. A बावीसमि: P छावी
समि । ६. AP छाइउ णहमंडलु । ७. A गयरायहं । १०.१.A पमत्तगडु ।
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