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तहिं जाया णीसरतणिहिं गज्जंत मेहगंभीरसर छत्तीससहस पुणु पंचसय चत्तारि सहस अडसयवरहं पण सहसइं अवरु वि पंचसय केवलिहिं रिसिहिं मणपज्जयहं
महापुराण
पई एहउ तेहउ जं कह मि जहिं अच्छइ तिजगु परिट्ठियडं संचलइ जेणे जें परिणवइ जं वण्णगंध रस फासधरु पई दिट्ठइ दीसइ तं सयलु पई दिट्ठे मुश्चइ चउगइहि तुह सुहि संपावइ परमु सुहं तु पुणु दोहं म मज्झत्थमणु
जं अवरु वि काई वि चरु अचरु । तुट्ट दढमोह लोहणियलु । पहु होइ जीउ पंचमगइहि । asरियड निरंतर तिव्वु दुहुँ । इचो सहियवइ धरइ जणु ।
घत्ता - चेईहरवणहिं बहुतोरणहिं धयपंतिहिं पिहिये कें ॥ परिहागोबरहिं सालहिं सरहिं समवसरणु किउ संकें ॥१०॥
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तं हरं बुहलोइ हासु लहमि । जें रुद्धउं णिश्चलु संठियजं । जें णिश्चमेव चेयण वहइ ।
पणास पंच गणहरमुणिहिं । एयारहसयमय पुव्वधर । तीसुत्तर सिक्खुये मुणियणय | अणगारहं सव्वावहिहरहं । घोसंति साहु संजय विमय । णवसहसइं वेउव्वणवयहं ।
[ ५१.१०.४
I
समुद्र समुद्र नहीं है । तुम शिव हो, नृत्य करनेवाला और प्रमत्त शिव शिव नहीं है । उनको जो तुम जैसा में कहता हूँ तो मैं पण्डित समाजमें हास्यका पात्र बनता हूँ । जहाँ त्रिलोक प्रतिष्ठित है । जिसके द्वारा वह रुद्ध और निश्चल रूपसे संस्थित है, जिससे चलता है और परिणमन करता है, जिससे नित्यरूपसे वह चेतनाको धारण करता है । जो वर्ण- गन्ध-स्पर्श और रूपको धारण करता है; और भी जो दूसरा चर-अचर है, तुम्हें देखनेपर वह समस्त दिखाई देता है, और दृढ़ मोहश्रृंखलाएँ टूट जाती हैं । तुम्हें देखनेसे जीव चार गतियोंसे छूट जाता है, हे स्वामी, मुझे पांचवीं गति प्राप्त हो। तुम्हारा सुधि परम सुख प्राप्त करता है, और तुम्हारा शत्रु निरन्तर तीव्रतम दुःख प्राप्त करता है । लेकिन तुम दोनोंके प्रति मध्यस्थ मन रहते हो, लोग अपने हृदय में इस आश्चर्यको धारण करते हैं ।
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घत्ता - सूर्यको ढकनेवाले इन्द्रने चैत्यगृहवनों, बहुतोरणों, ध्वजपंक्तियों, परिखा और गोपुरों, शालाओं और सरोवरोंके द्वारा समवसरणकी रचना की ॥ १०॥
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वहां उनके जिनसे ध्वनि खिर रही है, ऐसे पचपन गणधर मुनि हुए। गरजते हुए मेघ के समान गम्भीर ध्वनिवाले ग्यारह सौ पूर्वधारी, छत्तीस हजार पांच सौ तीस शिक्षक मुनि । चार हजार आठ सौ पूर्ण अवधिज्ञानवाले मुनि, पांच हजार पांच सौ साधु संयत विमद केवलज्ञानी कहे जाते हैं । पाँच हजार पांच सौ मन:पर्ययज्ञानी थे। नौ हजार विक्रिया ऋद्धि धारण करनेवाले
२. A जेण जं परि । ३. A वइरिउ ण गिरं । ४. P इह । ५. A विहियवकहि । ६. A सकिहि । ११. १. A सिक्खिय ।
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