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संधि ५५
तवसिरिराइयहु मुणिझाइयहु सयमहमहियपेयावहु ॥ वंदिवि कमजमैलु णिजियकमलु विमलहु विमलसहावहु ॥ध्रुवक।
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णरउलमहिलं जेण विरइयं सत्थं सारं जस्स गहेलं णट्ठसमोहं काउं समयं पत्ता णरयं भुवणमहीसं पई परिहीणं णारयविवरे णासइ गरयं ण हु उलुहंते देव पइट्ठो
वज्जियमहिलं । भोयविरइयं । वयणंसारं। हिंसाहेउं । वड्ढियमोहं। मयमाणमयं । जे ताणरयं । कह लहिही सं। जिण पडिही थे। णविए विवर। जणियंगरयं। सरणमहं ते। तं मह इट्ठो।
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सन्धि ५५ जो तपरूपी लक्ष्मीसे शोभित हैं, मुनियोंके द्वारा जिनका ध्यान किया गया है, जिनका प्रताप इन्द्रके द्वारा पूजित है, जो विमल स्वभाववाले हैं, ऐसे विमलनाथके कमलोंको पराजित करनेवाले चरणकमलोंकी में वन्दना करता हूँ।
जिन्होंने नरकुलोंको पृथ्वी प्रदान की है, जो महिलासे रहित हैं और जिन्होंने भोगसे विरहित परमार्थभूत सार्थक वचनांशवाले शास्त्रकी रचना की है। जो हिंसाके कारणभूत समतासमूहके नाशक मोहवर्धक शास्त्रको ग्रहण कर तथा मान और मद बढ़ानेवाले शास्त्रकी रचना कर उसमें अनुरक्त होते हैं, वे नरकको प्राप्त होते हैं। जो विश्व, बुद्धिविहीन है वह सुख कैसे प्राप्त कर सकता है। हे जिन, आपसे रहित यह विश्व निश्चित रूपसे नरकमें पड़ेगा, गरुड़के द्वारा कामभावको उत्पन्न करनेवाला विष ध्वस्त नहीं किया जा सकता। उल्लुओंके हन्ता कौओंके निकट मेरी शरण नहीं है। हे देव, मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, वही मुझे इष्ट है । गृहेन्द्रोंको त्रस्त करनेवाला महेन्द्र १.१. A सिरिरायह । २. AP पहावहु; K पहावहु but corrects it to पयावह । ३. AP जुवलु ।
४. A जे ताणरयं; P जेत्ताणरयं । ५. A महु ।
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