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महापुराण
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दुबई - जो तुहुं विंझसत्ति सो दोहं मि भेउ ण लक्खिओ मए । ss कल्लोलविहु हु जलणिहि केण विहत्तओ जए ॥ पर रईय भिण्णाई सरीरई । जं तेरउ तं तासु जि केरडं । हणिबंध बंधुहि सारउं । देहि समित हुं गुणमंजरि । एह बंधु बप्प कहिं अच्छिउ । अवसें सो घणपाणहु लग्गइ | जाहि ण दू देमि पणयंगण | णि कुलसामिहि कहइ महंत । देव ण देइ सुसेणु विलासिणि ।
एक्कु जीउ विहिणा गंभीर इं जं तहु केरल तं तुम्हारडं एत्थु ण किज्जैइ चित्तु अधीरजं णिरुवयारु तं णासइ सुंदरि ता पहुणा दूयउ णिन्भच्छिउ रि सीमंतिणी जो मग्गइ दरिसियरइरस करणालिंगण तें वयणें पुरु गंपि तुरंत उ हंसवं सवीणारव भासिणि
घत्ता - आयण्णवि दूयहं जंपियई गेहु चिराणउ भंजिवि ॥ सुसेणहु विंझपुरणरवइ सीहु व रुंजिवि ॥३॥
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दुवई - बेणि विचरणरेहिं संचालिय बेण्णि वि ते महाबला || वरणारीकण गणियारिरया इव भिडिय मयगला ॥
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" जो तुम हो, वही विन्ध्यशक्ति है दोनोंमें मैंने कोई भेद नहीं देखा ? यह लहरोंका समूह है और यह जलनिधि है, जगमें कौन उसे विभक्त कर सकता है ? एक ही जीव है, परन्तु विधाताने गम्भीर विभिन्न शरीरोंकी रचना की है। जो उसका है, वह तुम्हारा है और जो तुम्हारा है, वह उसीका है । इसमें किसी प्रकार अपने चित्तको अधीर नहीं बनाना चाहिए । बन्धुओंका स्नेह निबन्धन ही सार है। अनुपकार उस स्नेहका नाश कर देता है । इसलिए सुन्दरी गुणमंजरी तुम अपने मित्रके लिए दे दो।” तब राजा सुषेणने दूतकी भर्त्सना की - " हे सुभट, यह बन्धु कहाँ है, जो घरकी स्त्री मांगता है, वह अवश्य ही ( बादमें ) धन और प्राणोंसे भी लग सकता है। जिसने रति - रस उत्पन्न करनेवाले आलिंगनोंको प्रदर्शित किया है, ऐसी प्रणयांगना नहीं दूँगा, हे दूत, तुम जाओ ।" इन वचनोंसे दूत शीघ्र नगर जाकर अपने स्वामीसे कहता है कि हे देव, हंस-वंश और वीणा शब्द के समान बोलनेवाली विलासिनी गुणमंजरीको सुषेण नहीं देता है ।
[ ५४.३.१
घत्ता- दूतों के कथनों को सुनकर और अपने पुराने स्नेहको भंग कर विन्ध्यपुरका राजा सिंह के समान गरजकर सुषेणसे भिड़ गया ॥ ३॥
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दोनों ही दूत पुरुषोंसे संचालित थे । वे दोनों ही महाबल थे । श्रेष्ठ नारीके लिए हथिनी में
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३.
१. A पररइयं । २. AP कीरइ । ३. P बंधहे । ४. A घरसीमंतिणि । ५. AP देमि दूय । ४. १. संचारिया |
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