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- ४३. १४. ८ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
तिरिक्ख ससंख सुरा वि असंख समासिवि धम्मु पसियदुक्खु
महग्गमि फग्गुणपक्खि सुकिहि सणास तिदेह विमुक्कु ण कर्णे ण पीठ ण लोहिउ सुक्कु ण पुंसुण संदुण भण्णइ इत्थि हुआ परमेसरु अट्टगुणड्दु सिहिद सिरोमणिमुक्कसिहीहिं
घत्ता - संमेयहु सिरि समारुहिवि मासमेत्तु थिउ जोएं ॥ जिणु अंतिम झाणु पराइयउ सहुं मुणिवरसंघाएं ॥१३॥
सिवि सिद्धणिसीहियथत्ति गओ विहारि समीरवद्देण
पणासिवि राईरईसुहकख । छमासविहीण पुव्वहं लक्खु ।
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सेचित्तचउत्थितिथिही अवरहि । जगग्गधैरित्ति जाइवि थक्कु ।
ण लावु तासु ण चत्थि गुरुक्कु । फुरंत केवलबोह्गभत्थि । सरीरु सलक्खणु तक्खणि दड्छु । समच्चणवंदणहोमविहीहि । पहिं णिओइड कुंजरु झत्ति सुरण व अविभाणुमहेण ।
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असंख्य थे । रातकी रतिके सुखकी आंकाक्षाका त्याग करनेवाले, धर्मका आश्रय लेनेवाले और दुःखका ध्वंस करनेवाले उनका छह माह कम एक लाख पूर्व समय बीत गया ।
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घत्ता — सम्मेद शिखरपर चढ़कर वह एक माह तक योग में स्थित रहे । मुनिबर समूह के साथ वह अन्तिम शुक्ल ध्यानपर पहुँचे ||१३||
५.
माघ माह बीतने पर फागुनके कृष्णपक्ष चतुर्थीके दिन अपराह्न के समय चित्रा नक्षत्र में ज्ञानस्वरूप, तीन प्रकारकी देहोंसे विमुक्त वह जाकर विश्वके अग्रभागमें स्थित हो गये । जहाँ वह न कृष्ण थे और न पीत । न लाल और न शुक्ल । न उनमें लाघव था और न गुरुता । न वह पुल्लिंग थे और न नपुंसक । और न स्त्री कहे जाते थे । वह अपने प्रकाशमान केवलज्ञानमें स्थित थे । वह आठ गुणोंसे समृद्ध परमेश्वर हो गये । लक्षण सहित उनका शरीर समर्चन, वन्दन और होमको विधियोंसे युक्त अग्निकुमार देवोंके मुकुटमणिकी ज्वालाओंसे तत्काल दग्ध हो गया। सिद्धरूपी नृसिहों में स्थिति पानेवाले उनको नमस्कार कर इन्द्रने अपने पैरसे ऐरावतको प्रेरित किया, और चला गया। दूसरे देव भी सूर्य-चन्द्रमा के समान तेजवाले विमानोंपर बैठकर चले गये ।
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३. A सुसंख । ४. A रायरईसुह; P णारिरईसुहं । ५. A पहंसियं । ६. A सिहरु । १४. १. A महुग्गमि । २. A सुचित्त । ३ AP जगग्गघरित्तिहि । ४. A किण्ह । ५. Aण पुंसउ संकुण । ६. A बोधगभत्थि । ७. A समंचिषि ।
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