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संधि ४६
तहु देवहु तेत्तीसंबुणिहिपरिमियाउ पुणु णिहिउ ।। काले कलियउ तं तेत्तिउ वि छम्मासंतु परिट्ठिउ ॥ध्रुवक।।
तइयहुं सहसच्छि सहासवाहु अक्खइ जक्खहु सोहम्मणाहु । भो जक्ख जक्ख सयदलदलक्ख परिपालियवसुहणिहाणलक्ख । इह जंबुदीवि भरहंतरालि चंदउरि पउरि धणकैणजणालि । धरसेणु महासेणक्खु णिवह जं लंधिवि उवरिण रवि वि तवइ । सोहगें तिहुयणहिययलीण गमणेण हंसि घोसेण वीण । सियसरलतरलणयणहिं कुरंगि लक्खण णामें लक्खणहरंगि। तहु पणइणि णं ससहरहु कंति णं मुणिवरणाहहु लग्ग खंति । अट्ठमउ दयास रिमहिहरिंदु एयहु घरि होसइ जिणवरिंदु । सयणासणु भूसणु असणु वसणु कुरि पुरवरु सुंदर दलहि वसणु । घत्ता-ता भूरिचंदमउ चंदउरु चंदमुहिण तं विरइयउ ।।
धणदेवीभत्तारेण खणि मोत्तियरयणहिं खइयउ ॥१।।
सन्धि ४६ उस देवकी तेंतीस सागर परिमित आयु फिर समाप्त हो गयी। वह उतनी आयु भी कालके द्वारा कवलित कर ली गयी । केवल छह माह आयु शेष रही।
तब हजार आँखों और बाहुओंवाला सौधर्मेन्द्र यक्षसे कहता है-"कमलके समान आंखोंवाले, और जिसने वसुधाके लाखों खजानोंकी रक्षा की है ऐसे हे यक्ष, इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रके भीतर धन-जन और अन्नसे परिपूर्ण प्रवर चन्द्रपुरमें सेनाको धारण करनेवाला महासेन नामका राजा है, उसे लाँधकर; उसके ऊपर सूर्य भी नहीं तपता। उसकी लक्षणोंको धारण करनेवाली लक्ष्मणा नामकी पत्नी है, जो सोभाग्यसे त्रिभुवनके हृदयोंमें लीन है, जो गमनमें हंस और बोलने में वीणा के समान है, जो अपने श्वेत और चंचल नयनोंसे हरिणी है। उसकी वह प्रणयिनी ऐसी थी मानो चन्द्रमाकी कान्ति हो, या मानो मुनिवरके लिए क्षांति लगी हो। दयारूपी नदीके लिए महीधरेन्द्र के समान आठवें जिनेन्द्र इनके घर जन्म लेंगे। इसलिए शयनासन, भूषण, अशन, वसन और नगरको सुन्दर बनाओ, सब कष्टोंको दूर कर दो।"
पत्ता-तब चन्द्रमुख और लक्ष्मी देवीके स्वामी कुबेरने शीघ्र ही स्वर्णमय नगरकी रचना की और उसे एक क्षणमें मोतियों तथा रत्नोंसे विजड़ित कर दिया ॥१॥
१.१. A P कवलिउ । २. A सहसत्ति but gloss सहस्रपाक इन्द्रः। ३. A धणकयजणालि । ४. A
वरसेणु । ५. A P सुदरु दलियवसणु । ६. P भूरिचंदसुहचंदउ । ७. A चंदमुहेणं विरयउ ।
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