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संधि ५२
दलियारिंदकरि रूसिवि हरि खगकुलभवणपईवहु || चिरभववइरवसु आलद्धमिसु भिडिउ गंपि हयगीवहु ॥ध्रुवकं ॥
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दुबई - खुहियखदिविदे किंकरर व गज्जियगंध सिंधुरो ॥ जावतिखंडखोणिपरमेसरु चल्लिउ तुरयकंधरो ॥ भूगोयरवइघर व सियखयरि । सहज डिहि सि जाइवि चरेण । तुज्झुपरि आउ चक्कवट्टि । जं एव समासिउ चारणेण । अम्हहिं हुं सुतसीहु ब्रेणिउ । धणुलंगूलउ सरणहरवंतु । मंतिज्जइ एवहिं सो ज्जि मंतु । ता सस्सुरण सहसति उत्तु ।
तावेत्तहि पोयणणामणयरि पण वियसिरेण मउलियकरेण
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भो' ares frरु अण्णोयवहि आरु कण्णाकारणेण
सुणिवि पयावइ तेण भणिउ सो एवहिं बलमहंतु असिजीहापल्लव उलललंतु
वसमइ जेण सो कूरचित्तु
सन्धि ५२
शत्रुगजों का नाश करनेवाले नारायण और बलभद्र पूर्वभवके वैरके वशीभूत होकर और बहाना पाकर क्रोधपूर्वक विद्याधरकुल वलयके प्रदीप अश्वग्रीवसे जाकर भिड़ गये।
पत्ता - क्षुब्ध विद्याधरेन्द्र-समूह के अनुचरोंके शब्दसे जिसका गन्धहाथी गर्जित है, ऐसा त्रिखण्ड धरतीका स्वामी अश्वग्रीव जबतक चला
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तबतक यहाँ जिसमें मानवराजाके घर विद्याधर बसे हुए हैं, ऐसे पोदनपुर नगर में सिरसे प्रणाम करते हुए और हाथ जोड़कर दूतने ज्वलनजटीसे जाकर कहा - "हे विद्याधरराज, अत्यन्त अन्यायी चक्रवर्ती राजा तुम्हारे ऊपर आया है । कन्या के कारण वह तुमसे क्षुब्ध है ।" जब दूतने इस प्रकार संक्षेपमें कथन किया। उसने (ज्वलनजटीने) प्रजावतीसे कहा कि "हमने सुखसे सोते हुए सिंहको घायल कर दिया है, बलसे महान् इस समय धनुष जिसकी पूँछ है और जो तीररूपी नखोंसे युक्त है, ऐसा वह अपनी तलवाररूपी जिह्वाको लपलपाता हुआ उठ खड़ा हुआ है, इस समय वही मन्त्र करना चाहिए जिससे क्रूरचित्त वह शान्त हो जाये। आग वहीं
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A gives, at the beginning of this Samdhi, the stanza aaaa etc. for which see page 139. P gives it at L, K does not give it anywhere.
१. १. AP॰बंई । २. AP धुरो । ६. A आवइ । ७. A तं णिसुणि ।
३ AP घरि वसि । ४ A सो खगवइ । ५. अण्णायवत्ति । ८. A सुहि । ९. A धुणिउ; P वणिउ । १०. A सुम्मए ।
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