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महापुराण
[ ५२. २. ११भो सीराउह तुहिणयरकंति जं पई जाणिउँ तिह तं ण भंति । लइ तो वि देव किजइ परिक्ख उवइसहु कुमारहु मंतसिक्ख । बीयक्खराई मणि संभरंतु आसीणु सत्तरत्तें तुरंतु । जइ साहइ विज्जादेवयाउ ।
तो करइ परई मरणावयाउ । विज्जासाहणविहिभेयभिण्णु ता ससुरएण उवएसु दिण्णु । थिउ झाणारूढउ हलि उविंदु सत्तमदिणि कंपाविउ फणिंदु । पत्ता-विज्जाजोइणिउ वरदाइणिउ हरिरामहुँ पणवंतिउ ॥
रिउजमदूइयउ खणि आइयउ देहु णियमु पभणंतिउ ॥२॥
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दुवई-गारुडविज पुज्ज संसाहिय हरिणा भुवणखोहिणी ।।
अवर महंतसत्तसंचूरणि पंवर वि णाम रोहिणी ॥ खग्गैथंभणी
बलणिसुभेणी। गयणचारिणी
तिमिरकारिणी। सीहवाहिणी
वइरिमोहणी । वेयगामिणी
दिव्वकामिणी। विवरवासिणी
णायवासिणी। जलणवरिसिणी
सलिलसोसणी। धरणिदारणी
कुडिलमारणी। बंधमोयणी
विविहरूविणी। मुक्ककोंतला
लोहसंखला। छइयदसदिसी
कालरक्खसी। भ्रान्ति नहीं। तब भी हे देव, लो, परीक्षा कर लीजिए; कुमारके लिए मन्त्रशिक्षाका उपदेश दीजिए; वह तुरन्त सात रात तक बैठकर बीजाक्षरोंका ध्यान करता हुआ यदि विद्यादेवियाँ सिद्ध कर लेता है, तो वह दूसरोंके लिए मरणरूपी आपत्ति कर सकता है।" तब ससुरने विद्यासाधनकी विधिके रहस्यसे परिपूर्ण उपदेश उसे दिया। बलभद्र और नारायण ध्यानमें लीन होकर बैठ गये । सातवें दिन नागराज कम्पायमान हो उठा।
पत्ता-वर देनेवाली विद्यारूपी योगिनियां बलभद्र और नारायण (विजय और त्रिपृष्ठ) को प्रणाम करती हुई शत्रुके लिए यमदूतीकी तरह, 'आदेश दो' कहती हुई आयीं ॥२॥
नारायणने संसारको क्षुब्ध करनेवाली पूज्य गारुडविद्या सिद्ध कर ली। एक और दूसरी महान् शत्रुको चूर करनेवाली रोहिणी नामको महान् विद्या सिद्ध कर ली। खड्गस्तम्भिनी, वननिशुभिनी; आकाशगामिनी, अन्धकारकारिणी, सिंहवाहिनी, वैरीमोहिनी, वेगगामिनी, दिव्यकामिनी, विवरवासिनी, नागवासिनी, ज्वलनवर्षिणी, सलिलशोषिणी, भूमिविदारिणी, कुटिलमारिणी, बन्धमोचनी, विविधरूपिणी, मुक्तकुन्तला, लोहशृंखला, दसदिशा-आच्छादिनी,
९. AP सत्तरत्तिउ । १० A हरिरायहो । ११. P दूइओ। ३. १. A पुंज । २. A सयल महंत सत्त; P सयलमहंतु सत्त। ३. AP अवर वि । ४. APथंभिणी ।
५. AP°णिसुंभिणी । ६. AP°सोसिणी । ७. P°दारिणी । ८.AP विविहकुंतला।
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