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[५३. २. १४
महापुराण धम्मस लिलसिंचियधरो महिओ तेण जुयधरो। मुणिओ वत्थुविभेयओ उप्पण्णउ णिवेयओ। दाउं परिपालियखमं धणमित्तस्स कुलकम। सह णिवेहिं साहियमणो सममण्णियतणकंचणो। जाओ राओ मुणिवरो गिरिगहणे लंबियकरो। चरइ तवं सो जेरिसं
को किर वण्णइ तेरिसं। घत्ता-णिरु णिपिहमइ परमेसर पंथहु लग्गउ ।।
जिह देहे रिसि चित्तेण वि तिह सो जग्गउ ।। २॥
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माणसे असक्कयाई
पंच पंच एक्कयाई। बुज्झिउं सुयंगयाई
ताविउ णियंगयाइं। इंदियाइं पीडिऊण
दुक्कियाइं साडिऊण। अज्जिऊण चारु चित्तु तित्थणाहणामु गोत्तु । भाविऊण संतणाणु
झाइऊण धम्मझाणु। उज्झिऊण खाणु पाणु
तेण मुकुझ त्ति पाणु । णिग्गओ सरीरयाउ
णं रईसरीरयाउ। जम्मसायरे पडंतु
दुक्खविब्भमे घडंतु। चंदकंतकंतिमुक्ति
जायओ महंतसुकि। सोलसण्णवप्पमाउ
पोमलेसु सुब्भतेउ। प्रवर्तक धर्मरूपी जलसे धरतीको सिंचित करनेवाले अरहन्त युगन्धरकी उसने पूजा की। पदार्थके भेदको उसने समझा। उसे निर्वेद उत्पन्न हो गया। जिसमें पृथ्वीका परिपालन किया जाता है, ऐसी कुलपरम्परा ( कुलराज्य ) अपने पुत्र (धनमित्र ) को देकर, राजाओंके साथ अपने मनको साधते हुए, तृण और स्वर्णको समान मानते हुए वह राजा मुनिवर हो गया। गहन वनमें अपने हाथ लम्बे कर वह जिस प्रकारके तपका आचरण करता है, उसका वैसा वर्णन कौन कर सकता है ?
घत्ता-अत्यन्त निस्पृह-मति वह परमेश्वर अपने मार्गपर लग गये। जिस प्रकार वह शरीरसे ऋषि ( नंगे ) थे उसी प्रकार मनसे भी ॥२॥
अचिन्तित पाँच पापों और इन्द्रियोंको एक किया। श्रुतांगोंको समझा। अपने अंगोंको सन्तप्त किया। इन्द्रियोंको पीड़ित कर, दुष्कृतोंको नष्ट कर, सुन्दर विचित्र तीर्थकर नामका गोत्र अजित कर, अपने मनमें ज्ञानको भावना कर, धर्मध्यानका ध्यान कर, खान-पान छोड़कर उसने शीघ्र प्राणोंका त्याग कर दिया। शरीरसे इस प्रकार निकला मानो रतिरूपी नदीके वेगसे निकला हो। जन्मरूपी सागरमें पड़ता हुआ, दुःखोंके विलासमें होता हुआ, चन्द्रकान्तकी कान्तिके समान सफेद महाशुक्र विमानमें उत्पन्न हुआ। सोलह सागर प्रमाण आयुवाले उसकी पद्मलेश्या थी, और वह
५. A देहेण । ३. १ A ताविओ।
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