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संधि ५३
पणविवि देवहु णेयंतणिउंजियदिहिहि ॥ वासवपुज्जहु सिरिवासुपुज्जपरमेट्ठिहि ॥ ध्रुवकं ।
जो कल्लाणसयालओ हरिणवंदपहुआसणो कणयरकविलणिवारणो दुविहकम्मकयणिज्जरो जो णिण्णासियभयजरो जेस्स अणंतं वीरियं जो ण महइ दियवइरियं सुत्तं जस्स ण मंसए अरइयरइणिवाणओ बारहमो तित्थंकरो जो जम्मबुहिपोयओ बुज्झियवत्थुवियप्पयं भणिमो तस्स महाकह
मायाभावसयालओ। कुणयकुडंगहुयासणो। अजुणवारिणिवारणो। सुहयावयवो णिज्जरो। दाणालो जिणकुंजरो। अवि ण हणइ णियवइरियं । मज्जे जेण ण ईरियं । पाए जस्स णमंसए। _सकेऊ णिवाणओ। पणयाणं तित्थंकरो। वसिकयह रिकरिपोयओ। तं णमिउं परमप्पयं। चिण्णं तेण तवं कह।
सन्धि ५३ . जिनकी दृष्टि एकान्तमें नियुक्त नहीं है, और जो इन्द्रके द्वारा पूज्य हैं, ऐसे श्री वासुपूज्य देवको मैं प्रणाम करता हूँ।
जो कल्याण परम्पराओं के शोभन घर हैं, जिनमें मायाभाव सदाके लिए लय हो गया है, जिनके आसनमें सिंह है. कनयरूपी वक्षोंके लिए जो अग्नि हैं, जो कणयर और कपिलका निवारण करनेवाले और श्वेत छत्रको धारण करनेवाले हैं, जिन्होंने दो प्रकारके कर्मोंकी निर्जरा की है, जो सुन्दर शरीरावयववाले और जरासे रहित हैं, जिन्होंने भयरूपी ज्वरका नाश कर दिया है, जो दानके घर और श्रेष्ठ जिन हैं, जिनके पास अनन्तवीर्य है, फिर भी जो अपने शत्रुका हनन नहीं करते, जो ब्राह्मणोंके वेदोंका सम्मान नहीं करते, जिनका सिद्धान्त न मदिरामें है और न मांसमें, जिसने रतिसुखकी रचना नहीं की है, जो बाण रहित है, ऐसा कामदेव जिनके चरणोंमें नमस्कार करता है, जो प्रणतोंके लिए तीर्थ बनानेवाले हैं, जो बारहवें तीर्थकर हैं, जो जन्मरूपी समुद्रके लिए जहाज हैं, जिन्होंने अश्व-गजादिके समूहको वशमें कर लिया है, जिन्होंने पदार्थोंके भेदको १. १. भवजरो । २. AP जस्साणंतं । ३. A णिहणइ । ४. AP झसकेओ ।
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