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महापुराण
[ ५२. २७. १६घत्ता-थिउ परिहरिवि जणु पयसेवि वणु णिश्चमेव णिच्चलमइ ॥
अट्ठ वि णिद्धणिवि' कम्मई जिणिवि गउ सिवपयहु पयावइ ॥२७॥
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दुवई-एत्तहि णिसियविसमअसिधारातासियणरवरिंदहो ।
__ चरासीदि लक्ख गय वरिसह तहिं पुरवरि उविंदहो। दीहासीचावपमाणगत्तु
अण्णहिं दिणि भोयसुहें अतित्तु । णिद्धम्मचित्तु णिल्लुत्तणाणु वड्ढंतमहंतरउद्दझाणु। जिह सुत्तउ तेंव जि कण्हलेसु
मुउ कण्हु जमा किर को मैं वेसु । उप्पणउ तमतमपहि तमोहि पंचविहदीहदूसहदुहोहि। तेत्तीससमुहपमाणु आउ पंचसयसरासणतुंगकार। जायउ णारउ णारयहं गम्मु भणु केवणु ण मारइ भीमकम्मु । सई रुयइ सयपह कंत कंत अतुलबल देव हयगलकयंत । उछुट्ठि णिहालहि सुहिमुहाई दीहइ णिदइ सुत्तो सि काई। बलएवहु धाहारुण्णएण
लोय वि रुयंति कारुण्णएण । णिसुणेवि साहुवयणामयाई णिज्झाइवि जिणपयपंकयाई। पियविरहें हुयवह पइसरंति वारेवि सयंपह अणुमरंति ।
घत्ता-लोगोंका परित्याग कर निश्चल और निश्चित मति वनमें प्रवेश कर प्रजापति आठों ही कर्मोको नष्ट कर और जीतकर शिवपदको प्राप्त हुआ ॥२७॥
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यहाँपर पैनी और विषम असिधारासे जिसने नरवर राजाओंको त्रस्त किया है, ऐसे उस उपेन्द्र त्रिपृष्ठके उस नगरमें चौरासी लाख वर्ष बीत गये । उसके शरीरका प्रमाण अस्सी धनुष था। एक दिन वह भोगसुखसे अतृप्त हो उठा, धर्मसे रहित चित्त और ज्ञानसे लुप्त उसका रौद्रध्यान निरन्तर बढ़ रहा था। जैसे ही वह सोया वेसे ही कृष्णलेश्यावाला वह कृष्ण (नारायण त्रिपुष्ठ) मर गया। यमका द्वेष्य कौन नहीं होता। वह पांच प्रकारके दीर्घ दुखोंके समूह अन्धकारसे भरे तमतमप्रभा नगरमें उत्पन्न हुआ। उसको आयु तैंतीस सागर प्रमाण थी। पांच सौ धनुष प्रमाण ऊँचा उसका शरीर था। नारकियोंके लिए गम्य वह नारकी हुआ। बताओ भीमकर्म किसको नहीं मारता । स्वयंप्रभा स्वयं, "प्रिय-प्रिय' कहकर रोती है कि हे अतुलबल देव, अश्वग्रीव ! उठोउठो सुधीजनोंके मुखोंको देखो, तुम लम्बी नींदमें क्यों सोये हुए हो? बलभद्रके दहाड़ मारकर रोनेसे करुणाके कारण लोग भी रो पड़ते हैं। फिर साधु वचनामृतको सुनकर जिनवरके चरणकमलोंका ध्यान कर प्रिय विरहके कारण आगमें प्रवेश करती हुई तथा अनुशरण ( पतिके बाद
५. AP पइसरिवि वणु। ६. A णिविवि । २८. १. AP चउरासी वि। २. AP वडंतरउद्दमहंतझाणि । ३. P को ण दोसु । ४. A विहपंचदीह
५. AP केम ण मारह । ६. A संख्यह। ७.P पियविरहएं।
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