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-५३. ११. १५ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
२५१
जीह समीहइ भोयणउं दिट्ठि वि महिलालोयणउं। कण्णहिं इच्छिउ गेयरसु णासु गुणाहियगंधवसु । फासु वि मउसयणई महइ करणइं पंच जीउ वहइ। ताई मणेण जि पढेवइ
विसयह उवरि परिट्ठवइ । पसरियविविहसुहालसउ मोहेमइरमयपरवसउ। कुप्पइ तप्पइ णीससइ
णडइ रडइ गायइ हसइ । णाणाजम्महिं आइयउ
पेम्मपिसाएं छाइयउ। कुलबलविहवगव्वगहिउ गुरुयणकहियसीलरहिउ । उम्मग्गेण जि संचर
पई ण भडारा संभरइ। तुहुं तिहुयणअन्मुद्धरणु
तुहुँ जि देव विउसहं सरणु। तुहुं जिण गुणमाणिक्कणिहि तुहुं घोरपावकंतारसिहि। तुहुं जणमणवेयालहरु
अयसुहहलतियसतरु। जो पई पणवइ सुद्धमई सो पावई णिवाणगई। घत्ता-वाईसरिवइ रिदुसट्ठिसमं जसु गणहर ॥
बारहसयमिय पुरुवंगधारि तहु मुणिवर ।।११।।
"जीभ भोजनको इच्छा करती है, दृष्टि स्त्रीको देखना चाहती है, कानोंके द्वारा गीत-रस चाहा जाता है, नाक गुणोंसे अधिक गन्धके अधीन होती है, स्पर्श भी मृदु शय्याओंको महत्त्व देता है, इस प्रकार पांच इन्द्रियोंको जीव धारण करता है । मनके द्वारा उनको प्रेरित करता है, और विषयोंमें उन्हें प्रवृत्त करता है, प्रसरित बहुसुखोंमें वह ( जीव ) आसक्त होता है, तथा मोहरूपी मदिराके मदके अधीन हो जाता है। वह क्रुद्ध होता है, सन्तप्त होता है, निःश्वास लेता है, व्याकुल होता है, रोता है, गाता है, हंसता है, नाना जन्मोंमें आया हुआ ( यह जीव ) मोहरूपी पिशाचसे अभिभूत होता है। कुल, बल और वैभवके अहंकारसे गृहीत गुरुजनोंके द्वारा कहे गये शीलसे रहित वह सोटे मार्गसे ही चलता है । हे आदरणीय, वह तुम्हारा स्मरण नहीं करता। आप त्रिभुवनका उद्धार करनेवाले हैं, हे देव, आप ही विद्वानोंक्ती शरण हैं, हे जिन, आप गुणरूपी माणिक्योंकी निधि हैं, आप भयानक पापरूपी कान्तारके लिए आग हैं, आप जनमनके अन्धकारको दूर करनेवाले हैं, आप अच्युत सुखरूपी फलके लिए कल्पवृक्ष हैं, जो शुद्धमति तुम्हें प्रणाम करता है, वह निर्वाणगति प्राप्त करता है।"
घत्ता-जिनके छियासठ गणधर थे और बारह सौ पूर्वागके धारी मुनिवर थे ॥११॥ ११. १. A अट्ठवइ। २. A मेहमयरमय; P मोहमइरामय । ३. A पेमविसाएं। ४. A °वेयण्णहरु ।
५. P adds लह after पावइ ।
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