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-५२. १८. १९ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
१८ दुवई-सो जियसत्तु णाम धरणीसें जममुहकुहरि ढोइओ ॥ सरविसहरणिरुधु वरपरिमैलु चंदणतरु व जोइओ॥
तओ कंपणेसो समुप्पण्णरोसो। महेणं महतो णहंतं पिहंतो। कराइड्डेचावो महाभीमभावो। सदप्पं चवंतो सरोहं सवंतो। धए णिल्लुणंतो गइंदे हणंतो। हए कप्परतो
गरे चप्परंतो। जवेणं चरंतो रणे वावरतो। परं णिकिवेणं जएणं णिवेणं। खुरुप्पेण भिण्णो कयंतस्स दिण्णो। जयस्सावलुद्धो जमो णं विरुद्धो। रउद्दारिमहो पहू खेयरिंदो। पियारत्तचित्तो सयं झ त्ति पत्तो। मरुद्धयचिंधो सतोणीरखंधो। दिसालग्गकित्ती तहिं अक्ककित्ती।
थिओ अंतराले भडाणं वमाले। घत्ता-तेण ससामियहु गयगामियहु रूसिवि दिण्णउ उत्तरु ।।
देव पराइयहि कारणि तृयहि किं आढत्तउ संगरु ॥१८॥
भूमिके स्वामीने जितशत्रु उसे यमके मुखरूपी कुहरमें डाल दिया। सररूपी विषधरोंसे निरुद्ध, श्रेष्ठ परिमलवाला वह चन्दन वृक्षके समान दिखाई दिया। उस समय उत्पन्न हुआ है क्रोध जिसे ऐसा इन्द्रसे भी महान अकम्पन नामका राजा आकाशको आच्छादित करता हुआ, हाथमें धनुष खींचता हुआ महाभयंकर भाववाला, सदएँ बोलता हुआ, तीरसमूह गिराता हुआ, ध्वजोंको काटता हुआ, हाथियोंको मारता हुआ, अश्वोंको काटता हुआ, मनुष्योंको पराजित करता हुआ, वेगसे चलता हुआ, युद्ध में व्यापार करता हुआ (आया)। परन्तु उसे जय नामक कठोर राजाने खुरपेसे काट डाला और यमको दे दिया। मानो यशका लोभी यम ही विरुद्ध हो उठा हो । भयंकर शत्रुओंका मर्दन करनेवाला राजा, प्रियामें अनुरक्त चित्त विद्याधरेन्द्र राजा (अश्वग्रीव ) स्वयं शीघ्र पहुंचा। तब जिसका ध्वजचिह्न हवामें उड़ रहा है, जिसके कन्धे तूणीर सहित हैं, जिसको कीर्ति दिशाओंसे जा लगी है, ऐसा अर्ककीर्ति वहां योद्धाओंके कोलाहलपूर्ण अन्तरालमें स्थित हो गया।
पत्ता-उसने गजगामी अपने स्वामीको उत्तर दिया कि हे देव, परायी स्त्रीके कारण आपने युद्ध क्यों प्रारम्भ किया ? ॥१८॥
१८.१.A P°णिरुद्ध । २. A परिमल । ३. AP कराहल । ४. AP सरोसंवतो। ५. A
this foot. | ६. P जमो णाविरुद्धो। ७. P सतोणीरकंधो। ८. AP तियहे ।
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