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तं सई हेट्ठामुहुं जइ वि जाइ सक्केण करिवि अहिसेयभदु
महापुराण
हिउ मह विहि पाणिपोमि वं दिवि कुमारु भावे तिणाणि जाउ जुवाणु देवाहिदेउ जसु एक्कु वि देहावयउ णत्थि किं जिहु अण्णु उवमाणु को वि मच्छवि संगरभीसणाई पुन्वहं तरुणत्तें परिवडंति करिव सहविमाणावाहणेण अहिसचिव देवहु पट्टु बद्ध महिमा पुग्वहं गयाई तेणेहिं दिणिकीलावणंति
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तो विभव इ । आणि जिणपुंग रायभदु । णं इंदिदिरुपप्फुल्लपोमि । ग सग्गावासहु कुलिसपाणि । कि वण्णमि रूर्वे मयर केउ । मेहु वज्जिइ केंव हत्थि । इय जंप घिमिइ तो वि । तणुमाणें नवइ सरासणाई | जा पंचवीसहसाईं जंति । वावेपणु हरिवाहणेण । सोवि बद्धु I पणास सहास णिग्गयाई । कीलंतें नवकमलोयरंति ।
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घत्ता-खरदंडकरंडि पिंडियतणु करलालियउ ।
" सिरिताविच्छु मुड छच्चरणु णिहालियउ ||९||
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यद्यपि वह स्वयं नीचा मुख करके जाता है, फिर भी भवों को ऊपरसे ऊपर ले जाता है । अभिषेक कल्याण करनेके बाद इन्द्र उन्हें राजभद्र नगर ले आया । उन्हें महादेवीके करकमलमें इस प्रकार दे दिया, मानो खिले हुए कमलपर भ्रमर हो। तीन ज्ञानके धारी कुमारकी वन्दना कर इन्द्र अपने निवास स्वर्गं चला गया । देवाधिदेव युवक हो गये, रूपमें कामदेव के समान उनका क्या वर्णन करूँ परन्तु कामको एक भी शरीरावयव नहीं है । मेषसे हाथीकी तुलना किस प्रकार की जाये ? क्या जिनका कोई दूसरा उपमान है ? फिर भी धृष्टमति कविजन तब भी उपमान कहता है, स्वर्णके समान कान्तिवाले वह शरीरके मानसे युद्ध में भयंकर नब्बे धनुष के बराबर थे | तरुणाई में जब पच्चीस हजार पूर्व वर्ष बीत गये, तो हाथी, बेल और विमानोंको वाहन बनानेवाले इन्द्रने आकर - अभिषेक कर उन्हें राजपट्ट बांध दिया । वह स्वयं भी भारी स्नेहमें बँध गये । इस प्रकार धरतीका उपभोग करते हुए उनके पचास हजार वर्ष बीत गये । एक दिन कोड़ावनमें क्रीड़ा करते हुए कमलके भीतर उन्होंने -
[ ४८.९.१
घत्ता - कमल कोश में करसे लालित और गोल शरीर मरा हुआ भ्रमर देखा मानो तमाल वृक्षका पुष्प हो ||९||
९. १. AP भवियाई । २. P° पुंगवु । ३. A मसयहु । ४. A सहसाई होंति । ५. A विवाणावाहणेण । ६. A मार्णेतहु । ७. A हयाई । ८. P ताणे कहि । ९. A तं सिरि ।
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