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महापुराण
[ ४८.२१.६
गुणवंतणिंदिरई णियकुलमयंधाइं दुग्गंधरसभरियणवदेहरंधाई। मयहर्चट्टिरइं पाणियसउच्चाई हिंसाइ घडियाई पन्भट्ठसच्चाई। धरियक्खसुत्ताई मृगेचम्मभूसाई पालासदंडाई कासायवासाई। धणधरणिधरपणइणीमोहमूढाई छक्कम्मगंभीरजरकूवछूढाई । 'दुग्धोदृदुप्पोसपोसणपयट्टाई सुयसत्थवित्थारविलसियमरट्टाई। आसमयावेसपसरियविडंबाई जीवंति दीणाई बंभणकुटंबाई। घत्ता-गयसीयलदेवि भरहि जाय परपत्तविहि ॥
संपीणई विप्पु पुप्फदंत पणवंत सिहि ॥२१॥ इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फर्यतविरइए महामन्बमरहाणुमजिए महाकव्वे सीयकणाहणिग्वाणगमणं णाम अट्टयोलीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥४८॥
॥ सीयलणाहचरियं समत्त ॥
है। गोदान और भूदानमें जिनकी तृष्णाएँ बंधी हुई हैं। जो करका अगला भाग आये हुए कृपण की तरह दिखाई देते हैं, गुणवानोंकी निन्दा करनेवाले तथा अपने कुलके लिए जो मदान्ध हैं। जिनकी नवदेह दुर्गन्ध रससे भरित है। मृगकी हड्डियोंको चाटनेवाले, पानीसे पवित्र होनेवाले, हिंसासे रचित, सत्यसे भ्रष्ट, अक्षसूत्र धारण करनेवाले, मृगचर्मसे भूषित, पलाश दण्ड धारण करनेवाले, और गेरुए वस्त्र पहिननेवाले, धन भूमि घर और प्रणयिनीके मोहसे मूढ़ छह कर्म रूपी गम्भीर पुराने कूपमें पड़े हुए, मधु और मांसके पोषणमें लगे हुए-श्रुत शास्त्रोंके विस्तारमें विलसित अहंकारवाले ब्रह्मचारी गहस्थ वानप्रस्थ और यतिके रूप में जो लोकको प्र वाले हैं, ऐसे दोन ब्राह्मण-कुल जीवित रहते हैं।
पत्ता-शीतलनाथके निर्वाण प्राप्त कर लेने पर भरतक्षेत्रमें दूसरे पात्रोंकी विधि फैल गयी ( पुष्पदंत कवि कहता है ) कि आगको प्रणाम करता हुआ विप्र प्रसन्न होता है ॥२॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित महामन्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका शीतलनाथ निर्वाण गमन नाम का अडताकीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुभा ॥१८॥
८. A मयहुंडचंडिरइं; P मयहड्डचड्डिरई। ९. A मयचम्म'; P मिगचम्म । १०. A दुग्घट्टदुघोस । ११. AP आसवमयावेस । १२. A अकृतालीसमो । १३. AP omit the line |
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