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महापुराण
[४९. १.११जो परिहइ ण कयाइ वि कंकणु णउ फंसइ सञ्चित्त के कणु । णिच्चेलक जेण पडिवण्णउं । जइ वि चीरु चंगउं पडिवण्णउं । तो वि र्ण परिहइ जो णिण्णेहलु' जो ढोयइ णरि णिरु णिण्णे हलु । तहु देवहु संचियसेयंसहु पयजुयलउ वंदिवि सेयंसहु । घत्ता-पुणु अक्खमि तहु तणिय कह कित्ति वियंभउ मह जगगेहि ।।
पुक्खरवरदीवंतरइ सुरदिसि मेरुहि पुश्वविदेहि ॥१॥
सालतमालतालतरुसंकडि
सीयतरंगिणिपवरुत्तरतडि । कच्छउ देसु देससिरिसंकुलु वियसियकमलकोसरयपरिमल । कलववडियकलेविं कयकलयलु दुमफुल्लासियफुल्लंधुयचलु । तहिं खेमउरु काई वणिजइ जहिं पिययमु पणएं कलहिज्जइ । सरु वायरंणि गवर संधिज्जइ तणु विरहेण ण वाहिइ झिजइ । णहवणु ण वणु जेत्थु भडभंडणि केसगहणु बिंबाहरचुंबणि । अत्थसमप्पणि जहिं पयविग्गहु जइयणि णउ सावजपरिग्गहु ।
जहिं णिण्णासिय परमंडलवइ पासबद्ध णं घरमंडलवइ । भी नहीं है, जिसके भालपर तिलक नहीं दिया जाता, जो स्वयं त्रिभुवनमें तिलक स्वरूप हैं, जो कभी भी कंकण नहीं पहनते, जिनका अपना चित्त जल और बीजका स्पर्श नहीं करता, जिन्होंने अचेलकत्व (अपरिग्रहत्व) स्वीकार कर लिया है, यद्यपि वस्त्र पटी ( रेशमी वस्त्र ) के समान रंगवाला है, तब भी वह नहीं पहनते। जो स्नेह रहित हैं, फिर भी निम्न ऊंच मनुष्यको (स्वर्गादि) फल देते हैं, कल्याणका संचय करनेवाले देव श्रेयांसके चरणोंकी वन्दना कर।
घत्ता-फिर मैं उनकी कथा कहता हूँ कि जिससे विश्वरूपी घरमें मेरी कीर्ति फैले। पुष्करवर द्वीपकी पूर्व दिशामें सुमेरुपर्वतके पूर्व विदेह में ॥१॥
सीता नदीके साल तमाल और ताड़ वृक्षोंसे परिपूर्ण विशालतटपर, देश-लक्ष्मीसे व्याप्त कच्छ देश है, जिसमें विकसित कमल-कोशोंका रजमल है। धान्य विशेषके वृक्षोंपर बैठे हुए गौरेयापक्षियोंका कलकल स्वर हो रहा है, जो वृक्षोंके फूलोंपर बैठे हुए भ्रमरोंसे चंचल हैं। उसमें क्षेमपुर नगर है। उसका क्या वर्णन किया जाय, जहाँ प्रियतमसे प्रणयमें ही कलह किया जाता है (अन्यत्र कलह नहीं है)। जहां व्याकरणमें ही सर (स्वर और सर ) का संधान किया जाता है, अन्यत्र सरोंका संधान नहीं किया जाता; जहाँ विरहसे ही शरीर कृश होता है, रोगसे नहीं; जहां नखोंके व्रण ही हैं, योद्धाओंकी भिड़न्तमें जहां व्रण नहीं होते। विम्बाधरोंके चूमने ही में जहां केशग्रहण होता है, अन्यत्र केशग्रहण नहीं होता है। जहां अर्थों और पदवाक्योंके समर्पण (सम्पादन) में पद विग्रह (पदोंका विग्रह, प्रजाका विग्रह) होता है, अन्यत्र आर्थिक लेन-देनमें प्रजाका झगड़ा नहीं होता, जहां जैनोंमें सावध परिग्रह नहीं होता, जहां शत्रुमण्डलके राजा इस प्रकार
५. AP सचित्तउं । ६. AP तो णवि । ७. A जइ णिण्णेहलु । २.१. A देससरिसंकुल । २. A कलेवि; P कलंबि । ३. P ण पर। ४. A जइयणि तउ सावज्जपरिग्गह; P णउ परअत्थहरणि कयविग्गहु । ५. P णित्तासिय ।
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