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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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सहसा जायउ सुरलोयखोहु वीणारवु चल्लिउ किंणरोहु । उच्छाहें रक्खस किलिकिलंति वैटुंतई भूयई णहि मिलंति । किंपुरिस के वि किं किं भणंति सद्दिट्टिदेव पुच्छिवि मुणंति । रयवंत महोरय फुप्फुयंति गंधव्व गेयसरु सँई मुयंति । अणिबद्ध पिसायउ लइ चवंति दसदिसई जक्ख रयण घिवंति । ससहरैरवितेएं महि ण्हवंति तार तारत्तणु पक्खवंति । दुग्गह गहचरियई णिक्खवंति जय णंद वड्ड सामिय चवंति । णक्खत्तई णवणक्खत्तमहिउ वंदहुं चलियाई वियाररहिउ । दाविय णियपंति पइण्णएहिं सासेहि वं चासपइण्णएहिं । णहवडणविवरमुहणिग्गेमेहिं दिसिविदिसामग्गसमागमेहिं । संगलियई मिलियई सुरउलाई भावणमाभरियई जलथलाई । घत्ता-अइरावयकुंभविइण्णकरु पत्तउ जियपरसेणहु ।
पुरुहूयउ पुरपासहिं भमिवि घरि पइहु महसेणहु ।।५।।
शीघ्र ही देवलोकमें क्षोभ मच गया। वोगाके स्वरवाला किन्नर लोक चला। उत्साहसे राक्षस किलकारियां भरते हैं, बढ़ते हुए भूत आकाशमें मिलते हैं। कितने ही किंपुरुष किं कि का उच्चारण करते हैं, अच्छी दृष्टिवाले देव पूछकर विचार करते हैं, वेगशील महोरग फूत्कार करते हैं, गन्धर्व अपने गोत स्वर स्वयं छेड़ने लगते हैं ? पिशाच अनिबद्ध बोलते हैं, दसों दिशाओंमें यक्ष रत्नोंकी वर्षा करते हैं। चन्द्रमा और सूर्यको प्रभासे पृथ्वी अभिषेक करती है, तारागण भी अपना तारापन प्रदर्शित करते हैं ? खोटे ग्रह अपनी गृहचर्याका त्याग कर देते हैं, और वे 'हे स्वामी, जय हो, आप वृद्धिको प्राप्त हों, आप प्रसन्न हों,' यह कहते हैं। नक्षत्र भी नव नक्षत्रोंसे पूजित और विकार रहित की वन्दना करनेके लिए चले । नागोंने अपनी पंक्तिका प्रदर्शन किया, जैसे क्षेत्र हल रेखासे निबद्ध धान्योंकी पंक्ति हो, आकाश पतनके विवर मुखोंके निर्गमों और दिशा विदिशा मार्गों के समागमनोंसे देवकुल मिलकर चले। भवनवासी देवोंको आभासे जल और स्थल आलोकित हो उठे।
_पत्ता-जिसने ऐरावतके गण्डस्थलपर हाथ फैला रखा है ऐसा इन्द्र, वहां आया और नगर की चारों ओर परिक्रमा देकर, शत्रुसेना को जीतनेवाले राजा महासेनके घरमें उसने प्रवेश किया।॥५॥
५. १. सुरलोइ खोह । २. A वगंतइ । ३. P पुप्फुयंति । ४. P सयं । ५. A तेय महि; P तेयई महि ।
६. P ताराउ। ७. AP वद्ध। ८. A व वासपइण्णएहिं P व वण्णपयण्णएहिं । ९. A"णिग्गएहि । १०. संवलियई। ११. P भाभारिय जल ।
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