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- ४६. ३. २२
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
तिक्खणक्खणिद्दोरियमारियकुंज रं
रत्तलित्तमुत्ताहले मंडिय केसरं ।
सीह मुहावाणिग्गयदाढयं
इट्ठगंध से लिंधक रंब कोसयं
गोमणि च दिसकुंजर सिंचणरूढयं ।
|| दामजमलमलिमालासह परिपोसयं ।
पुण्यं विहुं जामिणिकामिणिदपणं
उग्यं इणं पीणिय पंकइणीवणं ।
मणिमणिकीलणलं पड
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चारुहारिकल्लाणघरं घडेसं पुढं ।
हंसचंचुपुडेंखुडियभिसं भिसिणीहरं
सेयसलिलवेला गहिरं रयणायरं ।
कुलिस हर केसरिकिसोरधरियासणं
अवि य पायसासणजसस्स णं सासणं ।
इंदधामविंद इस्स णिहेलणं
झत्ति दित्तजालासयछित्तणहंगणं
रयणपुंज मरुणं सुसिहातमहालणं ।
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हुयवहं च सेई पेच्छइ जालियकाणणं ।
और जिसके सींग स्थलकमलों (गुलाबपुष्पों ) से प्रसाधित हैं, ऐसे वृषभको; जिसने अपने तीखे नखोंसे हाथियों को फाड़कर मार डाला है; जिसकी अयाल रक्तसे रंजित मोतियोंसे शोभित है, जिसकी लम्बी दाढ़ें निकली हुई हैं ऐसे सिंहको; दिग्गजोंके द्वारा किये गये अभिषेकसे प्रसिद्ध लक्ष्मीको प्रिय गन्धवाले शैलिन्ध्र पुष्पोंके समूहको जिसमें स्थान है, और जो भ्रमरमालाकी सभासे परिपोषित हैं ऐसे पुष्पमाला युग्मको; भामिनीरूपी कामिनीके लिए दर्पण के समान पूर्णचन्द्र को कमलिनी वनको प्रसन्न करनेवाले उगते हुए सूर्यको प्रचुर जलक्रीड़ाके लम्पट मीन युगलको, सुन्दरताको धारण करनेवाले और कल्याणके घर कलशयुगलको; जिसमें हंसिनियोंके चंचुपुटोंसे कमलिनियां काटी गयी हैं, ऐसा कमलिनीगृह अर्थात् सरोवरको; श्वेत मलिलके तटोंसे गम्भीर समुद्रको; वज्र के समान नखोंवाले किशोरसिंहके द्वारा धारण किये गये आसन ( सिंहासन ) को; और भी जो इन्द्र यशके मानो शासन हो, ऐसे इन्द्रके विमानको; नागराजके भवनको; अपनी अरुण किरणोंकी ज्वालासे अन्धकारका प्रक्षालन करनेवाले रत्नसमूहको; और शीघ्र ही अपनी सैकड़ों प्रदीप्त ज्वालाओंसे आकाशके आँगनको आच्छादित करनेवाली और वनोंको भस्म करनेवाली आग को ।
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३. १. P विद्दारि । २. P मुत्ताहलमाला मंडियं । ३ AP सुहावालुयं । ४. AP रंबियं । ५. AT घडघडं । ६. A फुडखुडियं । ७. A इंदधामं वरउरवइणिहेलणं । A तमहारणं । ९. P दित्ति - जाला । १०. A हुयवहस्स जं सा पेच्छइ; P हुयवहं च सा पेच्छइ ।
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