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महापुराण
[ ४६. २.१
समविउलवाहियालीणिवेसु अवितुहट्टटिंटॉपएसु। वियसियवणपरिमलमहमहंतु । चलचंचरीयकुलगुमुगुमंतु । जिणवरघरघंटाटणटणंतु
कामिणिकरकंकणखणखणत् । माणिककरावलिजलजलंतु सिहरग्गधयावलिललललंतु । ससिमणिणिज्झरजलझलझलंतु मग्गावलग्गह रिहि लिहिलंतु । करिचरणसंखलाखलखलंतु रवियंतहुयासणधगधगंतु । वहुमंदिरमंडियजिगिजिगंतु सद्दलदलतोरणचलचलंतु । गंभीरतूररवरसमसंतु
तरुगयवसंतु णिच्चु जि वसंतु। कालायरुधूवियणायरंगु
णाणारंगावलिलिहियरंगु । घत्ता-सा सुंदरि पियमणहारिणिय सुरहियगंधई मालइ ॥
'सुहं सुत्त विरामि विहावरिहि सिविणयमाल णिहालइ ।।२।।
गलियदाणचलजललवलोलिरभिंगयं
पेच्छइ विसालच्छि पमत्तमयंगयं । इट्ठगिद्वितणुफंसणकंटइयंगयं
वसहममलथलकमलपसाहियसिंगयं ।
जिसमें अश्वोंके सम और विस्तीर्ण क्रीडाप्रदेश हैं, तथा सम्पुष्ट बाजार और द्यूतप्रदेश हैं। जो विकसित वनके परिमलोंसे महक रहा है और चंचल भ्रमरोंके कुलसे गुनगुना रहा है। जिसमें जिनवरके मन्दिरोंके घण्टोंकी टन-टन ध्वनि तथा कामिनियोंके कंगनोंकी खन-खन ध्वनि हो रही है, जो माणिक्योंकी किरणावलीसे प्रज्वलित है और शिखरोंके अग्रभागकी ध्वजाओंसे चंचल है। जो चन्द्रकान्त मणियोंके निझरोंके जलसे चमक रहा है। मार्गपर चलते हुए अश्वोंसे आन्दोलित है तथा हाथियोंके पैरोंकी श्रृंखलाओंसे झल-सा रहा है, सूर्यकान्त मणियोंकी ज्वालासे धकधक करता हुआ, अनेक प्रासादोंकी शोभासे चमकता हुआ जो गीले पत्तोंके तोरणोंसे चंचल है, गम्भीर तूर्योसे शब्द करता हुआ जो तरुणजनोंसे अधिष्ठित है और जिसमें वृक्षों में नित्य वसन्त स्थित रहता है। जिसके प्रांगण कालागुरुके धुएंसे युक्त तथा नाना प्रकारकी रांगोलियोंसे लिखित हैं।
पत्ता-सुरभित गन्धसे मालतीके समान अपने प्रियके मनका हरण करनेवाली, सुखसे सोती हुई वह रात्रिका अन्त होने पर स्वप्नावली देखती है ।।२।।
वह विशालाक्षी स्वयं देखती है-जिसके झरते हुए चंचल मदजलके कक्षोंपर चंचल भ्रमर मंडरा रहे हैं ऐसे प्रमत्त महागजको; जिसका शरीर प्रिय गौके शरीरके संस्पर्शसे रोमांचित है, २. १. P समु जेत्थु वाहि । २. 'टेंटापवेसु । ३. P°चरणह संखला । ४. AP रविअंत । ५. A°मंडणं ।
६. A समसमंतु। ७. A सुरहिगंध णं मालइ; P सुरहियगंध स मालह। ८. A सुहसुत्ति; P सुहें सुत्त ।
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