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संधि ४४
अगहिय असिपासह गयदप्पासहु पासाइयवम्महजयहु ॥ तोडियपसुपासहु णविवि सुपासहु पासियपासंडियणयहु ॥ध्रवक।
णिरायसं महाजसं णिरंजसं समंजसं। अमोसयं णिरंजणं सुवच्छलं णिरंजणं। पुरं गुरु णिरास
तैवोणिहं णिरास। असंगयं णिरंवरं
मयप्पमाणियंवरं। अमंदिरं गैयालय वियक्खणं णयालयं । मुणीसरं णिरामयं
समोसहं णिरामयं । अलं कुलेण उत्तम
सणाणएण णित्तमं । जिणोहि वेसु सत्तम णमंसिऊण सत्तम।
जयाहियं जईहियं भणामि तस्स ईहियं। घत्ता-णररयणकरंडइ धौदइसंडइ पुम्वविदेहि पुवगिरिहि ॥
हिमजललवसीयहि उत्तरि सीयहि कच्छउ देसु महासरिहि ॥१॥
सन्धि ४४ जिन्होंने आशाके पाशको ग्रहण नहीं किया, जिनका दर्प और आशा जा चुकी है, जिन्होंने कामदेवको विजयको नियन्त्रित कर लिया है, जिन्होंने जीवके बन्धनोंको तोड़ दिया है, जिन्होंने पाखण्डियोंके नयका खण्डन कर दिया है, ऐसे सुपार्श्वनाथको मैं प्रणाम करता हूँ।
जो रागसुखसे रहित हैं, जो परमार्थस्वरूप, कुटिलतासे रहित, अमृषावादी, निरंजन, सुवत्सल, अपाप, महान् हितोपदेष्टा, आस्रवसे रहित, तपोनिधि, अपरिग्रही, दिगम्बर, ज्ञानसे आकाशको आच्छादित करनेवाले, गृहविहीन, पहाड़ोंमें भ्रमण करनेवाले, विचक्षण नययुक्त मुनीश्वर नीरोग उपशमरूपी औषधिसे युक्त, स्त्रीसे रहित, समर्थकुलसे उत्तम, केवलज्ञानसे अज्ञानतमको दूर करनेवाले, जिनाधियोंमें सातिशय सबसे अधिक प्रशस्त, जगके अधिपति और यतियोंके द्वारा काम्य हैं, ऐसे सुपाश्वनाथको प्रणाम कर उनकी चेष्टा ( चरित ) को कहता हूँ।
घत्ता-जो महापुरुषरूपी रत्नोंके लिए पिटारीके समान हैं ऐसे धातकीखण्डके पूर्वविदेहके पूर्वविदेह पर्वतकी हिमकणोंसे शीतल सीता नदीके उत्तर में कच्छ देश है ।।१॥
१.१. P महायसं। २. A परं; P पुरं। ३. A P तवोणिहि । ४. A णियालयं। ५.P reads a as
band basa. ६. A धाय । ७. A उत्तरसीयहि ।
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