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संधि ४३
दपिट्ठदुट्ठपाविट्ठजगजणियभावु दावियपहु॥ कम्मदुर्गठिणिट्ठवणखमु पणवेप्पिणु पउमप्पहु ॥ध्रुवक।।
णिरंतरु जो तवलच्छिणिकेउ परजिउ जेण रणे झसकेर णियोयममग्गणिओइयसीसु वियड्ढविवाइविइण्णवियारु विव जिउ जेण वियालविहारु कडीयलि मेहल णेय णिबद्ध खयासरिसित्तसरोसहुयासु भडारउ जोरुणपंकयभासु पमेलिउ जो विहिणा विविहेणे समिच्छियणिक्खंयसोक्खपयस्स दुगुंछियकर्जामयाइणयस्स
गइंदखगिंदविसंकियकेउ । समुग्गउ जो कुगईखयकेउ । अपासु अवासु अणीसु रिसीसु । रयासववारु विमुक्कवियारु । सया गलकंदलु जस्स विहारु । ण कामिणि जेण सणेहणिबद्ध । सुझाणदवग्गिसिहोहहुयासु । अमिच्छअतुच्छपापियभासु । णमामि तमीसमहं तिविहेण । णइच्छियविप्पवियप्पपयस्स । भणामि समायरियं इणेयस्स ।
सन्धि ४३ दर्पसे भरे, दुष्ट और पापी जगमें शुभभाव उत्पन्न करनेवाले पथ-प्रदर्शक अष्टकर्मोकी गांठको नष्ट करनेमें सक्षम पद्मप्रभुको में प्रणाम करता हूँ।
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जो निरन्तर तपरूपी लक्ष्मीके निकेतन हैं, जिनका ध्वज गजेन्द्र, गरुड़ और वृषभेन्द्रसे अंकित है, जिन्होंने युद्धमें कामदेवको पराजित कर दिया है, जो कुगतिके क्षयके लिए उद्यत हैं, जिन्होंने शिष्योंको अपने आगममार्गमें नियोजित किया है, जो बन्धनरहित, गृहविहीन, अनीश, और ऋषीश्वर हैं । जिन्होंने विदग्ध विवादियोंसे विचार किया है, जो कर्मोके आस्रव-द्वारको रोकनेवाले और विकारोंसे मुक्त हैं। जिन्होंने असमयका विहार करना छोड़ दिया है, जिनका गला सदेव हारसे रहित है। जिन्होंने कटितलपर मेखला नहीं बांधी। जिनसे कामिनी स्नेहबद्ध नहीं है, जिन्होंने क्रोधरूपी ज्वालाको क्षमारूपी नदीसे शान्त कर दिया है, जिन्होंने सुध्यानरूपी दावाग्निके शिखासमूहमें इच्छाओंको होम दिया है, जो अरुण कमलोंकी कान्तिवाले हैं, जिनकी भाषा मिथ्यात्व रहित प्रचुर जनताके लिए प्रिय है, जो विविध क्रमोंसे रहित हैं, मैं उन ईशको तीन प्रकारसे प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने विप्रोंके विकल्पोंसे युक्त ( संशयापन्न ) पदकी इच्छा नहीं की है, जिन्होंने अक्षय सुखपदकी इच्छा की है, जिन्होंने कृष्ण मृगाजिनकी निन्दा की है, मैं ऐसे इनके (पद्मप्रभुके) १.१. A समग । २. A णियागम । ३. A सयामयकंदलु । ४..A P पयासियभासु । ५. A तिविहेण ।
६. A अक्खयसोक्खपयासु । ७. A पयासु । ८. P कण्हमयं अइणस्स । ९. P इणमस्स । . १२
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