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महापुराण
[४३.७.९तओ तहिं पत्तु सयं सयमण्णु कुमार णिवेसिउ रज्जि पसण्णु । १० दु एक्कु जि बिद्य पंच जि देहि पुणो वि सिसुत्तरसंख गणेहि ।
पत्ता-इय पुव्वकालु पुहईसरहु गउ सुहुँ सिरि माणंतहु ।
विण्णवियउ ता किंकरणरिण कर मउलिवि पणवेवि तहु ॥७॥
णराहिव दीहरपासणिरुद्ध करीसरु वारिणिबंधणि बंधु'। समुण्णयकुंभु णहग्गविलग्गु धराहिव जाणविं तुम्हहुं जोग्गु । तओ परिचिंतिउं दिव्वणिवेण पमग्गियकेवलणाणसिवेण । ण विझसरीजलकील मणोज्ज ण सल्लइपल्लवभोज्ज ण सेज्ज । ण कंदल मिट्ठ ण कोमलवेणु ण मग्गविलग्गिरबालकरेणु । करेणुरई करताडणु णत्थि
सफासवसेण विडं बिउ हत्थि । दढंकुसघट्टणु फासणिरोहु सहेइ वराउ वियंभियमोहु । ण एक्कु इहिंदु मए इह उत्तु अहो जणु दुक्कियदेह णि खुत्त ।
ण णिग्गइ जग्गइ कि पि ण मृदु सिरिमयणिपरत्वसु दु । १० अहं पि हु मोहिउ किं परु मोक्खु दुमाणवु चम्मविणिम्मिउ रुक्खु ।
विणासिरु जाणिवि पेच्छमि लोउ विरप्पमि तो विण मुंजमि भोउ ।
असासउं रज्जु असुंदरु अंतिण इच्छमि अच्छमि गंपि वर्णति । होनेपर, तब फिर वहां इन्द्र स्वयं आया और प्रसन्न कुमारको राज्यमें प्रतिष्ठित किया। फिर दो और एकके ऊपर पांच बिन्दु दो और तब शैशवके बादकी संख्या गिनो।
पत्ता-इतने वर्ष पूर्व ( इक्कीस लाख पूर्व वर्ष) वर्ष लक्ष्मीका सुख मानते हए राजाके निकल गये तो अनुचर मनुष्यने हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए राजासे निवेदन किया ॥७॥
हे नराधिप, जो लम्बे पाशसे निरुद्ध था, हाथियोंके आलान में बंधा हुआ था और जिसका कुम्भस्थल समुन्नत था, ऐसा वह महागज आकाशके अग्रभागसे जा लगा है (मर गया है)। अब तुम्हारे योग्य बातको मैं जानता हूँ। तब जिसने केवलज्ञान और शिवकी याचना की है, ऐसे दिव्य राजाने विचार किया-"विन्ध्या नदी (नर्मदा) की जल-क्रीड़ा सुन्दर नहीं है, शल्यकी लताके पल्लवों को भोजन और सेज भी ठीक नहीं हैं, न कन्दल मीठे हैं और न कोमल वेणु । न मार्गमें लगी हुई बाल करेणु अच्छी है, अब उसमें हथिनीका प्रेम और सूंडसे प्रताड़न नहीं है। स्पर्शके वशीभूत होकर हाथी विडम्बनामें पड़ गया है । बढ़ रहा है मोह जिसका, ऐसा यह बेचारा गज दृढ़ अंकुशोंका संघर्षण एवं स्पर्शका निरोध सहन करता है, मैं यह कहता हूँ कि अकेला गजेन्द्र नहीं, आश्चर्य है लोग भी पापोंकी कीचड़में फंसे हुए हैं। मूर्खजन न निकलता है और न थोड़ा भी जागता है। मर्ख लक्ष्मीके मद और निहाके वशीभत है। अरे में भी तो मोहित ई. श्रेष्ठ मोक्ष क्या? खोटा मनुष्य चर्मसे निर्मित और रूखा है। लोकको विनश्वर जानता हूँ और देखता हूँ। तो भी विरक्त नहीं होता, और भोग भोगता हूँ। राज्य अशाश्वत है और अन्तमें सुन्दर नहीं होता। मैं इसे नहीं चाहता । वनमें जाकर रहता हूँ।"
७. P पंच जि बिदुय । ८. P चयारि । ९. Aणरिणा । ८.१. A P बद्ध । २. A दिव्वु । ३. A पासणिरोह। ४. A Pढ़ । ५. A विरप्पवि ।
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