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महापुराण
[४१.६.१
छम्मासई वसुहार वरिट्ठी थिय जिणेजणणि जाम संतुट्ठी। ता वइसाहेहु पंडरपक्खइ छट्ठीवासरि सत्तमरिक्खइ । विजयणाहु तिहुयणविक्खायउ करिरूवें सिविणंतरि आयउ । मयणविलासविसेसुप्पत्तिहि उयरि परिटिउ संवरपत्तिहि । पुणु सो णिहिवइ णिहि पसाहिइ । प्रंगेणि छडरंगावलिसोहिद। धरणीयलगेयणिहिआकरिसई णव वि मास माणिकई वरिसइ । जसससहरकरधवलियदिग्गइ संभवि संभवपासविणिग्गइ। जइयहुं सायरसरिसहुँ झीणई दहलक्खई कोडिहिं वोलीणई। तइयहुं माहमासवारसियहि 'पालेयंसुकरावलिसुसियहि । बारहेमम्मि जोइ कोमलतणु बारहअणुवेक्खाभावियमणु । णाणत्तयजाणियजगल्यउ
देउ चउत्थउ जिणु संभूयउ ।
धत्ता-जिणजम्म' आसणथरहरणि जाणिवि कुंजरु सजिउ ॥
महि आयउ ससुरु सुराहिवइ सुरकरचमरहिं विजिउ ।।६।।
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छह माह तक रत्नवृष्टि हुई । भगवान्की माता सन्तुष्ट हो गयो। वैशाख माहके शुक्लपक्षमें षष्ठीके दिन, सातवें नक्षत्र (पूनर्वसु) में, त्रिभुवनविख्यात विजयनाथ अहमेन्द्र गजरूपमें स्वप्नान्तरमें आया और कामके विलास विशेषोंको उत्पन्न करनेवाली राजा स्वयंवरकी पत्नी सिद्धार्थाके उदरमें प्रविष्ट हो गया। वह कुबेर पुनः राजाको प्रसन्न करता है, वह छह प्रकारके रंगों की रांगोलीसे शोभित घरके प्रांगणमें, धरतीतलको निधियोंको आकर्षित करनेवाले माणिक्योंकी नो माह तक वर्षा करता है। अपने यशरूपी चन्द्रमाकी किरणोंसे दिग्गजोंको धवलित करनेवाले सम्भवनाथके जन्मपाशसे मुक्त होनेपर, जब दस लाख करोड़ सागर समय बीत गया, तब माघमासके शुक्लपक्षकी चन्द्रकिरणोंसे धवल द्वादशोके दिन, बारह अनुप्रेक्षाओंसे भावितमन कोमल शरीर तीन ज्ञानोंसे विश्वस्वरूपको जाननेवाले, चौथे तीर्थकर अभिनन्दन उत्पन्न हुए।
घत्ता-सिंहासन कांपनेसे जिनका जन्म जानकर देवेन्द्रने अपना हाथो सज्जित किया और देवोंके हाथोंसे चमरों द्वारा हवा किया जाता हुआ देवों सहित वह धरतीपर आया ।।६।।
६. १. A णियजणणि । २. P वयसाहहु । ३. A P पंडुरं । ४. A पवरपसाहिए। ५. A P पंगणि ।
६. P धरणीयले । ७. P णवमासइं। ८. A जं ससहरकरपवलियदिग्ग; Pषवलिए दिग्गए । ९. A संभमि । १०. A P संभवपासहु णिग्गइ । ११. A पालेयंसकरावलिं; P पालेयंसुकलावलि । १२. AP बारहयम्मि । १३. A P°जम्मणि ।
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