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संधि ४२
पंचमगइगमणु पहु पंचगुरुहुँ पहिलारउ ॥ पंचमंतित्थयरु पणविवि पंचेसुवियारउ ॥ ध्रुवकं ॥
णिजियसवणं णिज्जियरूवं णिज्जियगंधं णिज्जियसरसं णिज्जियको णिज्जियमाणं णिज्जियमायं णिज्जियलोहं मुणियपयत्थं कयसुत्तत्थं पालियमहिम
संतं सैवणं । णिरुवमरूवं। सुरहियगंधं । वज्जियसरसं। वरवक्कोह। सुहरिसमाणं । चत्तपमायं। गयसल्लोहं। भासातत्थं। जं दिव्वत्थं । घल्लियमहिमं ।
सन्धि ४२ पांच गुरुओंमें पहले, पांचवीं गतिमें गमन करनेवाले प्रभु (सिद्ध ) और कामका नाश करनेवाले पांचवें तीर्थंकर (सुमतिनाथ) को मैं प्रणाम करता हूँ।
जो श्रवण ( कान ) को जीतनेवाले सन्त श्रमण हैं, जो बाह्य रूपको जीतकर भी अनुपम रूपवाले हैं, गन्धको जीतकर भी सुरभित गन्धवाले हैं, काम-सुखको जीतकर जिन्होंने सराग वचन छोड़ दिया है, जो क्रोधको जीतकर भी उत्तम वाक्य-समूहवाले हैं, मानको जीतकर भी जो इन्द्रके समान हैं, जिन्होंने मायाको जीत लिया है, एवं प्रमादका परित्याग कर दिया है। जो लोभको जीतनेवाले और शल्योंसे रहित हैं । प्रशस्तके ज्ञाता, निर्बाध वक्ता, दिव्यार्थवाले सूत्रोंके निर्माता,
A has, at the beginning of this Samdhi, the following stanzai
सोऽयं श्रीभरतः कलङ्करहितः कान्तः सुवृत्तः शुचिः सज्ज्योतिर्मणिराकरो प्लुत इवानो गुणैर्भासते । वंशो येन पवित्रतामिह महामत्रायः प्राप्तवान् (प्रापितः ?)
श्रीमद्वल्लभराज-कटके यश्चाभवन्नायकः ॥ १ ॥ No other known MS of the work gives it. १.१. A P पंचम तित्थयरु । २. Pसमणं । ३. P°समणं । ४. A सुरहिसुयंधं; T सुरहिसुगंधं ।
५. Aसुवतत्थं । ६. T लंघियमहिमं ।
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