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महुसमयसंगमो उववणे उववणे वूढसिंगारए जोव्वणे णवणवे जत्थ सव्वो जणो जित्तगिव्वाणओ किंकरा बंधुणो दाणसंमाणिया मंतियं चिंतियं चारु कज्जं पुणो
महापुराण
घत्ता - उवसमवाणिऐण सिंचेप्पिणु किज्जइ सीयलु ॥ भोयर्तणेण पुणु पज्जलइ भीमु कामाणलु ||२||
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गच्छाम इच्छा
इ भणिवि समु चिणिवि मोहल्लेव
वल्लहहु णंदणहु "प्रायंति व्रउ लइड रामाहिरा मे दुव्वारवारणई भावेण भावेवि जित्तु जिवित्तु गुरुपुण्णु अज्जेवि
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रमइ वेईसवणओ आवणे आवणे । वसइ वरसरसई माणवे माणवे । तत्थ पहु अस्थि णामेण रइसेणओ । रायलच्छी चिरं तेण संमाणिया । मोक्सोक्खंकरो णत्थि रज्जे गुणो ।
गुरुपाय पेच्छा |
जिणु थुणिवि मणु जिणिवि । देवि ।
तं अरुणंदणहुँ । हियवर ण विहियेउं । इट्ठे कामे ।
सोलह वि कारणइं । णीस वैवसेवि । जिणणारं जिणगोतु | मोहं विसज्जेवि ।
[ ४२.२.१०
उपवन-उपवन में वसन्तका समागम है, ओर जहां कुबेर बाजार-बाजारमें रमण करता है । शृंगारित नवनवयौवन और मनुष्य - मनुष्य में जहां सरस्वती निवास करती है । जहाँ सभी मनुष्य देवोंको जीतनेवाले हैं, ऐसे उस नगर में रतिसेन नामका राजा था। जिसके अनुचर और बन्धु दानसे सम्मानित हैं, उसने बहुत राज्यलक्ष्मीको सम्मानित किया ( बहुत समय तक उसका उपभोग किया ) । फिर उसने अपने शुभ कामकी मन्त्रणा ओर चिन्तना की कि राज्य में मोक्षसुखको देनेवाला गुण नहीं है ।
घत्ता-उपशमरूपी जलसे सींचकर कामरूपी आगको शान्त करना चाहिए, भोगोंसे तो कामाग्नि भयंकर रूपसे प्रज्वलित हो उठती है ॥२॥
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'मैं जाता हूँ । इच्छा करता हूँ । गुरुचरणोंके दर्शन करता हूँ ।' यह विचारकर, समताको पहचानकर, जिनकी स्तुति कर, मनको जीतकर, मोहनीय कर्मको छोड़कर, अपने प्रिय पुत्र अतिरथको राज्य देकर, अर्हन्नन्दनके चरणोंमें उसने व्रत ले लिया । स्त्रियोंसे सुन्दर इष्ट कामोंमें उसका मन तनिक भी विस्मित नहीं हुआ । संसारका निवारण करनेवाली सोलह कारण भावनाओंकी अपने मनसे भावना कर, मुक्त व्यवसाय कर, जिनसूत्र जिनवृत्त जिननाम जिनगोत्र भारीपुण्यका
१२. AP वहसवणु पुणु । १३. AP पाणिए । १४. A P भोयत्तणेण ।
३. १. P एच्छामु । २. P मही देवि । ३. A P जित्तारिसंदणहु । ४ A Padd after this: मुणिगोत्तणामासु रविकिरण घामासु । ५. AP, पायंति तउ । ६. A P विभविउ । ७. A P उबसेवि ।
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