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-४१. ५.११]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-इय दंसणणि उरुंबउ सइइ सुहसुत्ताइ णिरिक्खिउ ।।
सुविहाणइ संवरणरवइहि जं जिह तं तिह अक्खिउ ॥४॥
तं णिसुणिवि जसधवलियमहियलु कहइ कंतु कंतहु सिविणयफेलु । जो तिहुवणमंगलु तिहुयणवेइ जं झायंति जोइँ गयमलमइ । सो तुह होसइ सुउ मई णायउं । णञ्चहि सुंदरि चंगउं जायउं । तहिं अवसरि दिवि सकें बुक्किउं संवरैमहिवइ मुंजउ सुक्किउ । सिरि अरहंतु देउ अवलोयउ । सिद्धत्थइ सिद्धत्थु जणेवउ । मा होजउ तहु किं पि दुगुंछिउ अहु णिहिणाह करहि हियइच्छिउँ । ता साकेयणयरु वित्थारिउ अहिणवु धणएं सव्वु सवारिउँ । फुरियपसंडिपिडु पविरइयउ जहिं दीसइ तहिं तहिं अइसइयउ । कडयम उडमंडियवरगत्तउ उयरसुद्धिपारंभणिउत्तउ । घत्ता-सोहम्मसुरिंदें पेसियउ सव्वउ पुण्णपसत्थउ ।
घर रायहु आयउ देवयउ मंगलदम्वविहत्थर ।।५।।
पत्ता-इस प्रकार सुखसे सोयी हुई उस सतीने स्वप्न-समूह देखा। दूसरे दिन सुन्दर प्रभातमें, उसने जैसा देखा था, वेसा अपने पति राजा स्वयंवरसे कहा ॥४॥
यह सुनकर अपने यशसे महीतलको धवल कर देनेवाले कन्तने अपनी कान्तासे कहा"जो त्रिभुवनके मंगल और त्रिभुवनपति हैं, निर्मल मतिवाले योगी जिनका ध्यान करते हैं, वह तुम्हारे पुत्र होंगे, मैंने यह जान लिया है। हे सुन्दरी, तुम नाचो; यह बहुत अच्छा हुआ।" उसी अवसरपर स्वर्गमें इन्द्रने कहा कि राजा स्वयंवरको पुण्यका भोग हुआ है । देखो, वह श्री अरहन्त देवको सिद्धार्थकी तरह, सिद्धार्थासे जन्म देगा। हे कुबेर, उनके लिए कुछ भी खराब बात न हो, जाओ तुम उनकी इच्छाके अनुसार काम करो। तब उसने साकेत नगरका विस्तार किया । धनदने वहाँ सब कुछ नया कर दिया। सुन्दर स्वर्णपिण्डसे रचना की। वह जहाँ दिखाई देता वहां अतिशय सुन्दर था। उदरकी शुद्धि प्रारम्भ करनेके लिए नियुक्त कटक और मुकुटोंसे अलंकृत शरीरवाली,
घत्ता-सौधर्म स्वर्गके देवों द्वारा भेजी गयों, पुण्यसे प्रशस्त मंगलद्रव्य अपने हाथोंमें लिये हए देवियां राजाके घर आयीं ॥५॥
१४. A णिरंबउ । १५. A P सुहं सुत्ताइ । १६. A संवरणिवइहि । ५.१. P हलु। २. A तिभवणवइ। ३. A जोगि। ४. A मयणायउ। ५. A P बुज्झिउं । ६. A ___ संवरणरवइ भुंजइ । ७. A अविलेव3; P अवलोउ। ८. A सक्केयणय । ९. A P समारिउ ।
१०. A°पिंड । ११. A°मउलमंडियं ।
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