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-४१४.३]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
सो णिग्गंथु गंथु'ण समीहइ सणियउं वियरइ पावहु बीहइ । ण पसंसाइ करइ पहसिउं मुहुँ णउ केण वि प्रिंदिउ मण्णइ दुहुँ। दूसंतउ पर पिसुणु ण दूसइ हिंसंतउ मणावि णउ हिंसइ। लाहालाहइ जीवियमरणइ
समु जि समणु संठिउ समचरणइ । जिणिवि कुहेउवाय णयचंडहं . तिणि तिउत्तरसँय पासंडहं । एयारह अंगई अवगाहिवि दसणु सुद्धि बुद्धि आराहिवि। बंधिवि कयसोलहकारणहलु सिरिअरहंतणारं गोत्तुज्जलु । णिहणयालि अणसणु अब्भसियउं देहखेत्तु रिसिहलिएं किसियउं । कामकोहधरणीसह खंडिवि पासहिं दिहिवइ दढयर मंडिवि । णाणसासु वड्ढारिउ चंगउं सासु मुयंतें मुक्कु णियंगउं ।
घत्ता-सुहमाणे मुउँ सो परमरिसि णिम्मलु णिरुवमरूंयउ॥ ... अहमिंदु अणुत्तरि धवलतणु विजयविमाणई हूयउ ॥३॥
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जलहिसमैमिए कालि णिग्गए तम्मि सुंदरे
तीसतियहिए। सुरेहं मृग्गए। हं पुरंदरे।
वह निर्ग्रन्थ मुनि, परिग्रहकी इच्छा नहीं करते, धीरे-धीरे विचरण करते, और पापसे डरते । प्रशंसासे वह अपना मुख हँसता हुआ नहीं करते (प्रसन्न नहीं होते ), और किसीके द्वारा निन्दा किये जाने पर दुःख नहीं करते। दूषण लगाते हुए भी दुष्टको वह दोष नहीं देते। हिंसा करनेपर भी, जरा भी हिंसा नहीं करते। लाभ-अलाभ, जीवन और मरणमें सम, वह श्रमण समताके आचरणमें स्थित हो गये। कुहेतुवादोंको जीतकर और नयसे प्रचण्ड तीन सौ सठ पाखण्डोंको जोतकर, ग्यारह अंगोंका अवगाहन कर दर्शनशुद्धि और बुद्धिकी आराधना कर, सोलह कारण भावनाओंके फल, श्री अरहन्तके उज्ज्वल गोत्रका बन्ध कर, उन्होंने अन्तिम समय अनशनका अभ्यास किया, और देहरूपी खेतको मुनिरूपी कृषकने कर्षित किया। काम-क्रोधरूपी वृक्षोंको उखाड़कर चारों ओर धैर्यको मजबूत बागड़ लगाकर उन्होंने ज्ञानरूपी धान्य खूब बढ़ा ली, सांस छोड़ते ही उन्होंने अपने शरीरका त्याग कर दिया।
पत्ता-शुभध्यानसे मरकर वह निर्मल परममुनि, और विजय नामक अनुत्तर विमानमें अनुपम रूपवाले धवलशरीर अहमेन्द्र देव हुए ॥३॥
तोन अधिक तीस अर्थात् तेंतीस सागर प्रमाण, देवरीतिसे समय बीतनेपर, उस शुभाशय ३. १. Pण गंथु । २. A P पहसियमुह । ३. A परपिसुणु ण दूसइ; P परि पिसुणु ण दोसइ । ४. A P तिणि तिसठिसयई। ५. A Pदंसण । ६. A रिसिहलि संकिसिय । ७. A मुयउ। ८. A P
रूबउ । ९. Aषणत्तक । १०. P विमाणे । ४. १. A समणिए; P समसिए । २. A सुरहरं गए ।
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