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महापुराण
[४०.११.४गहणंति कहिं वि अहणिसु गमइ जंपइ ण किं पिसं संसमइ । विहरइ मणपज्जवणाणधरु विसमें जिणकप्पे जिणपवर । तउ एंव करतहु झीणाई
चउदहवरिसई वोलीणाई। कत्तियसियपक्खि चउत्थिदिणि. अवरण्हि जम्मरिक्खि वियणि । छट्टेणुववासें णि ट्ठियहु
सुविसालसालतलि संठियहु ।। गइ पढमि बीइ सुक्कुग्गमणि चउकम्मकुलक्खयसंकमणि । उप्पण्णउं केवलु केवलिहि। गयणोवडंतकुसुमंजलिहि ॥ घत्ता-तहु जाएं णाणे णेयपमाणे जे केण विण वि चिंतविय ॥
ते विवरि अहीसर महिहि महीसर सग्गि सुरिंदवि कंपविय ॥११।।
खगामिणा
ससामिणा। समेयया
अमेयया। अमाहरा
रमाहरा। मलासयं
णियासयं । कुणतया
थुणंतया। मुणीसरं
सरो सरं। ण संधए
ण विधए। ण जम्मि सा
मलीमसा। रइच्छिहा
कया विहा। महाजसं
तमेरिसं। महाइया
पराइया। ऐसा, दर्पकी उत्कण्ठाओंका निषेध करनेवाला थौवीरके भातको उन्होंने खा लिया। गहन वनमें वह कहीं भ्रमण करते हैं, वह कुछ भी नहीं बोलते, आत्माका उपशमन करते हैं, मनःपर्यय ज्ञानके धारी वह जिनप्रवर विषम जिनकल्पमें भ्रमण करते हैं। इस प्रकार तप करते हुए उनके क्षोण चौदह वर्ष बीत गये। तब कार्तिक शुक्ला चतुर्थी के दिन, जन्मकालीन मृगशिरा नक्षत्र में अपराह्न के समय, छठे उपवासके साथ, एक विशाल शाल वृक्षके नीचे बैठे हुए प्रथम और दूसरी गतिमें शुक्लध्यान उत्पन्न होनेपर चार घातिया कर्मों के कुलका क्षय कर लेनेपर, जिनके ऊपर आकाशसे कुसुम वृष्टि हो रही है ऐसे उन केवलीके लिए केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
पत्ता-जिसका प्रमाण नहीं है, ऐसे उत्पन्न केवलज्ञानके द्वारा किसीके भी द्वारा नहीं कपाये गये, पाताल लोकके नागेश्वर, धरतीके राजा और स्वर्गके देवेन्द्र भी कम्पित हो उठे॥११॥
अपने स्वामीके साथ विद्याधर प्रचुर संख्यामें इकट्ठे हुए। अलक्ष्मीका नाश करनेवाले लक्ष्मीके धारक, अपने चित्तको मलरहित करते हुए तथा जिनपर कामदेव न तो बाणका सन्धान करता है, और न बेधता है, ऐसे मुनीश्वरकी स्तुति करते हुए, और जिन मुनीश्वरमें मलिन रति-कामनाका अन्त कर दिया गया है, महायशवाले ऐसे मुनीश्वरके पास, वे महा____३. A सं सम्ममइ । ४. A ण वि चितिय; Pण वि चितविया । ५. A वि कपिय; P वि कंपविया । १२. १. P रईछिहा।
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