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संधि ४१
अहिणंदणु इंदाणंदयरु णिदिदियई णिवारउ ।। वंदारयवंदहिं वंदियउ वंदिवि संतु भडारउ ॥ध्रुवक।।
असोक्खकंतारयं ण जं च कंतारयं जेणस्स सं गंगयं विइण्णमलभंगयं सुवण्णरुइरंगयं विहंसियणिरंगयं रयं परमघोरयं
हयभवोहकंतारयं । ण्हवणयम्मि कं तारयं । कुणइ जस्स संग गयं । हुणइ वड्ढमाणं गयं । जसपउण्णभूरंगयं । जणियभावणारंगयं । असमसंपयावारयं।
सन्धि ४१ इन्द्रको आनन्द देनेवाले निन्दित इन्द्रियोंके द्वारा निवारित देवसमूहके द्वारा वन्दित सन्त भट्टारक अभिनन्दनकी में वन्दना करता हूँ।
जो दुखरूपी जलसे तारनेवाले और जन्मसमूहरूपी कान्तारको नष्ट करनेवाले हैं, जो स्वयं कान्तामें रत नहीं हैं, जिनके अभिषेककर्मका जल स्वच्छ है, गंगासे उत्पन्न और उनके शरीरसे प्राप्त जो जल लोगोंके लिए सुख उत्पन्न करता है। मलोंका घातक जो बढ़ते हुए रोगोंका नाश करनेवाला है, जिनके शरीरकी कान्ति स्वर्णके समान है, जिनके यशसे समस्त भूमिमण्डल परिपूर्ण है, जिन्होंने कामदेवको ध्वस्त कर दिया है, जिन्होंने सोलह कारण भावनाओंमें राग पैदा किया है, जो आत्मरत और परम अरोद्र हैं। जो क्रोधरूपी सम्पत्तिका निवारण करने
Mss. A and P have the following stanza at the beginning of this Sarndhi:
वरमकरोदपारतरविवरमहिकिरणेन्दुमण्डलं यदपि च जलधिवलयमधिलंध्य विधेस्तदनन्तरं दिशः । विगलितजलपयोदपटलद्युति कथमिदमन्यथा यशः
प्रसरदमादमल्लकदनाभारत भूवि भरत सांप्रतम ॥१॥ A reads 'किरद्धिमण्डलं in the first; P reads विधिसूदनन्तरं दिशः। PrePeats the stanza at the beginning of XLVII. A gives it only here. K doee net give
it here or there. १. १. AP विदहि । २. AP add a before जणस्स । ३. AP हणइ ।
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