________________
-३९ ५.८]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित ण भुयंति सयण ससणेहबंधु किउ दोहिं मि पडिबोहणणिबंधु । जो पावइ अग्गइ मणुयजम्मु तहु अमरु समासइ परमधम्मु । बिण्णि वि ते दिवि णिवसंति जांव कालेण महाबलु ढलिउ तांव।। कोसलपुरि राउ समुद्दविजउ जसु घरि घोसिज्जइ णिञ्चविजउ । विजया णामें तहु अत्थि घरिणि परमेसरि णाई अणंगधरणि । सो तियसु सग्गसिहराउ ल्हसिउ तहि केरइ गब्भणिवासि वसिउ । घत्ता-हरिकंधरु बहुलक्खणधरु छणससहरमंडलमुह ॥
कणयच्छवि णावइ णवरवि जाणियउ जणणिइ तणुरुहु ॥४॥
संगामसमुहरउद्दमयरु
कोकिउ कुमारु ताण सयरु । णं केसरि दरदीसंतदादु
दुव्वारवेरिसंगामसोढु। कालेण गलंतें जाउ पोद
पलयक्कु व तिवपयावरूढ । तणु तासु जोहकरभूसणाह
चउरद्धसयाई सरासणाहं। मंदरभित्ति व उत्तगिमाई
छज्जइ गोरी सेविय रमाइ। तह णिवकुमारकीलाइ ललिय पुव्वहं अट्ठारहलक्ख गलिय । देत्तिय जि महामंडलवइत्तु
पालंतहु पत्थिवपय पयत्तु । गय जइयहुँ तइयतुं सुकियसारु उप्पण्णउ चक्कु फुरंतधारु । कि जो पहले मनुष्य-जन्म प्राप्त करेगा, देव उसे परमधर्मका कथन करेगा। इस प्रकार जब वे दोनों स्वर्गमें निवास कर रहे थे तब समयके साथ महाबल देव स्वगंसे च्युत हआ। कोशलपुरमें राजा समुद्रविजय था। उसके घर में नित्य विजय घोषित की जाती थी, उसकी विजया नामकी गृहिणी थी। वह परमेश्वरी जैसे कामदेवकी भूमि थी। वह देव स्वर्गशिखरसे च्युत होकर, उसके गर्भनिवासमें आकर बस गया।
घत्ता-सिंहके समान कन्धोंवाले, अनेक लक्षणोंके धारक और पूर्णिमाके चन्द्रके समान मुखवाले उस बालकको माताने जन्म दिया, जैसे स्वर्णच्छविने नवसूर्यको जन्म दिया हो ॥४॥
संग्रामरूपी समुद्र के भयंकर मगर उस कुमारको पिताने सगर कहकर पुकारा। दुर्बार वैरियोंके संग्राममें समर्थ वह मानो सिंह था कि जिसकी थोड़ी-थोड़ी डाढ़ें दिखाई दे रही थीं। समय बीतनेपर वह प्रौढ़ हो गया। वह प्रलय-सूर्यके समान अपने तोत्र प्रतापसे प्रसिद्ध था। उसका शरीर योद्धाओंके हाथोंके आभूषण स्वरूप साढ़े चार सौ धनुषके बराबर था। ऊंचाईमें वह मन्दराचलको भित्तिके समान था। लक्ष्मी और सरस्वतीसे सेवित वह शोभित था। पत्नीकी सुन्दर क्रीड़ामें अठारह लाख पूर्व वर्ष बीत गये, और जब इतने ही वर्ष महामण्डलाध्यक्षके रूप में पार्थिवप्रजाका प्रयत्नपूर्वक पालन करते हुए हो गये तो उसे पुण्यका सारभूत चमकती धारवाला
३. A सयणि । ४. A P पवरु धम्मु । ५.१. A पयायरूढ़ । २. P उत्तंगिमाइ। ३.P कुमारलीलाइ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org