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-३९. १६. १३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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दारिवि धरणीयलु दिढभुएहिं आणिय मंदाइणि तुह सुएहि । अहिभवणि विलग्गउ दंडरयणु णिग्गउ फणि गैरलुप्पेच्छणयणु । आरूसेप्पिणु आसीविसेण जोइय णि णंदण वइवसेण । ता चवइ सयरु गयदुरियकलिलु हाइज्जइ दिज्जइ काई सलिलु । कि एण पणासइ ईट्टसोउ
वर पंचमुट्टि सिरि देमि लोउ । जहिं कहिं मि ण पेच्छमि सुहिविओउ ण हु होइ कयाइ अणिठ्ठजोउ। जहिं सयलकाल अयरामरत्तु जहिं थक्कइ अप्पउ णाणमेत्तु । तं सिउ साहं बि गिण्हें वि चरित्तु पुणु भीमकुमारु णिवेण वुत्तु । लइ वसुह ण इच्छिय तेण केम गुणवंतें परगेहिणिय जेम । ता थविवि भईरहि पुहाइरज्जि अप्पणु लग्गउ परलोयकज्जि । दढधम्महु पायंतिइ समग्गु आराहिउ भावें मोक्खमग्गु । घत्ता-सहुं भीमें णिज्जियकामें चारित्तण विहूसिउ ॥
चक्केसरु हुन जोईसरु मणिके० वि सुरु तोसिउ ॥१६॥
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तुम्हारे पुत्र धरतीको अपने दृढ़ बाहुओंसे खोदकर गंगा नदी ले आये। उनका दण्डरत्न नागभवनसे जा टकराया। विषसे परिपूर्ण नेत्रवाला वह नाग निकला। उसने ऋद्ध होकर यमके समान उन पुत्रोंको देखा । इसपर जिसका पाप कलंक धुल गया है ऐसा राजा सगर कहता है कि क्या स्नान किया जाये और पानी दिया जाये, क्या इससे इष्टजनका वियोग दूर हो जायेगा? अच्छा है मैं पांच मुट्ठियोंमें सिरके बाल लेकर केशलोंच करता हूँ। जहां किसी सुधीका वियोग मैं नहीं देखता। और न कभी भी अनिष्ट योग होता है, जहां सदैव अजर और अमरत्व निवास करता है । जहाँ आत्मा ज्ञानमात्र रहता है, मैं उस शिवको सिद्ध करता हूँ। मैं चारित्र ग्रहण करता हूँ।" तब राजाने कुमार भीमसे कहा कि यह धरतो तुम ले लो। परन्तु उस गुणवान्ने उसकी इच्छा नहीं की जैसे वह किसी दूसरेकी गृहिणो हो। तब भगीरथको पृथ्वीके राज्य में स्थापित कर, राजा सगर स्वयं परलोकके काममें लग गया। दृढ़धर्मा मुनिके चरणों के निकट उसने सम्पूर्ण भावसे समग्र मोक्षमार्गको आराधना की।
पत्ता-कामको जीतनेवाले चारित्रसे विभूषित, और भीमके साथ वह चक्रेश्वर योगीश्वर हो गया। इससे मणिकेतु देव भी सन्तुष्ट हो गया ॥१६॥
१६.१. P गरलु दुपेच्छणयणु । २. P रूसेप्पिणु आसीविसविसेण । ३. A P तुह । ४. A दुट्ठसोउ ।
५. P वरि । ६. A P सव्वकाल । ७.A P अपरामरत्तु । ८. A P साहमि । ९. A P गेण्हमि । १०.A P मणिकेत वि संतोसिउ ।
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